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आज भी कायम है लैंगिक असमानता

 

अनुपमा शर्मा
भारतीय समाज की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में किए गए प्रयास कितने ईमानदार हैं। हमारा समाज महिलाओं की आकांक्षाओं, इरादों व आजादी को कितना तव्वजो दे रहा है। हाल के दिनों में महिलाएं साइकिल, मोटर साइकिल, कार, बिजनेस, नौकरी आदि परिवार के भरन-पोषण के लिए कर रही हैं। बावजूद इसके अपने ही परिवार में उन्हें गैरों की भांति समझा जाता है। लैंगिक भेदभाव व दुर्व्यवहार को सहन करना पड़ता है। वह महिला सरकार नौकरी क्यों न करती हो। उन्हें यंत्रणा व यातना से गुजरना पड़ता है। जबकि आधी आबादी को सशक्त व स्वालंबी बनाने की सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं की योजना-परियोजना से सशक्तिकरण की दिशा में साकारात्मक पहल हो रही है। इसके बावजूद महिलाओं के अधिकारों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। महिलाओं के स्वास्थ्य व सुरक्षा के बारे में जितने कानून बन जाएं लेकिन पारिवारिक स्तर पर पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलती, आर्थिक मजबूती नहीं होती तबतक महिला स्वास्थ्य व सुरक्षा के मामले में कमजोर मानी जाएंगी। गैर सरकारी संस्था ‘केयर’ के मुताबिक हमारे देश में लैंगिक असमानाताओं के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में या गरीब परिवारों में खाने-पीने में भी अंतर किया जाता है। बेटे को दूध, दही मिलता है, तो वहीं बेटियों को अन्न-जल से काम चला लेना पड़ता है। स्त्रियां घर के पुरुषों को दाल, चावल, सब्जियां आदि परोस देती है और खुद बचे-खुचे या बासी भोजन से काम चलाती है। जबकि स्वास्थ्य के लिहाज से पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को अधिक कैलोरी की जरूरत पड़ती है। एक घरेलू महिला के लिए दिनभर में 2100 कैलोरी की आवश्यकता है, वहीं श्रम करने वाली महिलाओं को 2400 कैलोरी की जरूरत पड़ती है। महिलओं के संपूर्ण पोषण के लिए संतुलित भोजन-दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दूध, फल आदि नितांत आवश्यक है। संतुलित आहार नहीं मिलने की वजह से उनके शिशुओं के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। यूनिसेफ के अनुसार यदि महिलाओं को संतुलित आहार मिले, तो पहले वर्ष में स्तनपान से पांच साल से कम उम्र के बच्चों में करीब पांचवें हिस्से (1/5) की मौतों को रोक सकते हैं। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ 2015-16 के आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार 6 से 23 माह की आयु के 10 भारतीय शिशुओं में से केवल 1 को पर्याप्त आहार मिल पाता है। पोषण की ऐसी स्थिति महिला की सेहत की ओर इंगित करता है। यदि मां को पर्याप्त व पौष्टिक आहार मिले, तो नवजात शिशुओं की सही देखभाल संभव है। पर, महिलाओं को बचे-खुच्चे, बासी भोजन व अनियमित खानपान से सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। एक महिला पूरे परिवार का पोषण व देखभाल का जिम्मा अपने कंधों पर उठाती है। पूरे परिवार की सलामती के लिए खुद के अरमानों को त्याग देती है। इसी त्याग व अपनेपन के भाव के कारण परिवार का सदृढ़ीकरण होता है। 
वास्तव में सशक्तिकरण एक सोंच है जिसके लिए महिलाएं अपने निजी जीवन के फैसले खुद लेती है। जीवन के हर स्तर पर आत्मनिर्भर व निर्भीक खुद बनती है। अपने दृष्किोण से पहचान बनाती है और उड़ान भरती है। हमारे आसपास देश -विदेशों में चर्चित कई महिलाएं हैं- शिवानी, किसान चाची, मधुपालिका अनीता,  महिलाओं की दीदी पूनम आदि ने अपने बलबूते जीवन को नया आयाम दिया है।  लेकिन इतने नामों से काम नहीं चलता हमें आधी आबादी को हरेक क्षेत्र में आगे आना होगा। मुजफ्फरपुर जिले के पारू की शिवानी नौसेना की पहली महिला पायलट बनकर देश का नाम रौशन की। सरैंया ब्लाॅक की राजकुमारी देवी खेतीबाड़ी, आचार, मुरब्बा आदि बनाकर पूरी दुनिया में नाम रौशन की और महिलाओं की प्रेरणा बनी। मुख्यमंत्री नीतीश  कुमार समेत कई दिग्गज नेताओं ने सम्मानित किया। आखिरकार किसान की चाची ‘किसानचाची’ को पद्मश्री अवार्ड से नवाजा गया। ऐसी देश की कई महिलाएं हैं, जो अपने बलबूते सफलता की कहानी लिख रही हैं। यह प्रेरणास्रोत हैं। भारतीय समाज की राॅल माॅडल हैं। 
वह मूरत मात्र ही नहीं है देवी,
असल शक्तियों से भड़ी, डटकर रहती हर घड़ी ।
उनके सहयोग से होती, सृष्टि की उन्नति,
कैसे कह लेते तुम बेचारी ! योद्धा है जीवन की।
अनेकों रिश्तों से जुड़ी महिला, नारी, स्त्री........

वर्षों से असमानता, लैंगिक पूर्वाग्रह, उत्पीड़न, हिंसा आदि झेलती महिलाएं समाज में धीरे-धीरे अपनी मौजूदगी को हर हाल में बरकरार रखी है। मगर अधिकांश महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार आज भी कायम है। आज भी लड़कियों को कमजोर, कोमल व नाजुक समझा जाता है। शहरी महिलाएं हद तक सशक्त हो रही हैं। वहीं, ग्रामीण महिलाएं आज भी उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, डायन जैसी कुप्रथा, लैंगिक भेदभाव आदि का शिकार हो रही हैं। ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं को ‘तुम औरत हो’ यह कहकर चुप करा दिया जाता है। दूसरी ओर औरतों को देवी के रूप में सुशोभित करके संबोधित किया जाता है। पुरातन काल से स्त्रियों को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि से विभूषित  किया जाता रहा है। पर्व आने पर कन्या पूजन व भोज की परंपरा आज भी कायम है। नारी खुद के लिए पैसा भी नहीं रख सकती फिर व ह लक्ष्मी कैसे ! जो समाज में फैल रहे अत्याचार, खुद की सुरक्षा के लिए प्रहार भी नहीं कर सके, वो दुर्गा कैसे! जिसे किसी फैसले करने का अधिकार नहीं , उच्च शिक्षा,  देश -दुनिया के दायरे से दूर रखा जाए वो सरस्वती कैसे ! इतना ही नहीं आज भी सैकड़ों लड़कियां जन्म लेने से ही पहले मां के पेट में ही मार दी जाती है। बस इतना के लिए कि दहेज कहां से देंगे। पढ़ाई-लिखाई, शादी, नौकरी, सुरक्षा आदि-आदि। आखिर क्यों इतना कानून होते हुए भी महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी नहीं मिल रही। लड़कों की शादी तबतक नहीं की जाती जबतक वे कुछ रोजगार-धंधा न कर लें। जबकि लड़कियों को 18-20 वर्षों में शादी कर दी जाती है। लड़का नशा  करे, आवारागर्दी करे, पार्टी करे, परीक्षा में बार-बार फेल हो जाए, पैसे की बर्बादी करे, तो समाज की नाक नहीं कटती। पर, लड़कियां घर को सजाए-संवारे, परिवार परंपरा का निर्वहन करे, पढ़ाई-लिखाई करे। इसी दरम्यान किसी से बात क्या कर ली, समाज की नाक कट जाती है। सशक्तिकरण की दिशा  में बिहार सरकार के कुछ कदम सराहनीय है कि उसने नगर निकाय, पंचायत चुनाव आदि में 50 फीसदी आरक्षण देकर सशक्त करने की मजबूत कोशिश की है, जो मील का पत्थर साबित हो रहा है। दूसरी ओर शिक्षक नियोजन में 50 प्रतिशत एवं अन्य सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण देकर आधी आबादी को सशक्त करने में क्रांतिकारी कदम उठाया गया है। बिहार सरकार ने जीविका के माध्यम से स्वयं सहायता समूह के गठन में महती भूमिका निभायी है। हाल ही में पीडीएस लाइसेंस निर्गत करने में आरक्षण देकर महिलाओं को सशक्त करने की कोशिश सराहनीय रही  है। 
इस मुद्दे पर वैशाली जिले के चकअल्हादादपुर के सरपंच वसंत कुमार कहते हैं कि गांव में लड़कों से अधिक लड़कियों में पढ़ाई के प्रति चाव देखने को मिलता है। कई वर्ष से मैट्रिक के परिणाम में भी बिहार की बेटियां परचम लहरा रही है। गांव में महिलाओं के प्रति आहिस्ते-आहिस्ते सोच-विचार बदल रहा है, पर दहेज लेना-देना पहले से अधिक बलवती हो रहा है। जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी मांग। ग्राम पंचायत में महिला उत्पीड़ने के भी मामले कम नहीं आते। कुल मिलकाकर महिलाओं को अपनी आवाज बननी पड़ेगी। खुद के पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा। इसके लिए जमीनी स्तर पर सफल महिलाओं को उपेक्षित महिलाओं का दुख-दर्द समझना होगा। 
एक बड़ा सवाल यह है कि इतना आरक्षण देने के बाद भी पंचायत या नगर निकाय में जीतकर आने वाली महिला जनप्रतिनिधियों की जगह मुखिया पति, सरंपच पति, पार्षद पति आदि योजना का क्रियान्वयन और फैसले लेते हैं, जो आधी आबादी के सशक्तिकरण के लक्ष्य को पूरा करने में रोड़ा है। समाज में अपने बातों को व्यक्त करने में संकोच करने वाली महिलाओं की संख्या अधिकहै, इन्हें खुद को बुलंद करते हुए सशक्त आवाज बननी पड़ेगी। अपने स्वाभिमान की रक्षा खातिर अपनी लड़ाई अपने घर से ही शुरू करनी पड़ेगी। आज हमारे देश में आजादी के बाद से मात्र एक महिला प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति बनीं। आखिर क्यों !अधिकांश महिलाएं पढ़ने-लिखने के बाद भी घर तक सीमित रह जाती है। 
यह जरूर है कि आज समय और हालात बदले हैं। आज शिक्षित और संपन्न परिवार के लोगों की बिटिया शहर जाकर महाविद्यालय में दाखिला ले रही हैं। रहन-सहन, पहनावे, सोच आदि में काफी बदलाव आया है। ग्रामीण इलाके के किसान- मजदूर की कुछेक लड़कियां इंटर तक की पढ़ाई करने लगी हैं। देखा-देखी लड़कियों के अंदर कुछ कर गुजरने की मद्दा अवश्य है। जरूरत है वैसी लड़कियों की प्रतिभा को पहचानने की। उन्हें हरेक क्षेत्र में समान अवसर देने की। इंजीनियरिंग, डाॅक्टरी, अधिकारी या रोजगार आदि के लिए उन्मुख करने की । 
वैशाली जिले के जंदाह की अनिशा ने अपने पिता-भाई से जिद् करके सिपाही की नौकरी कर ली। गांव में तरह-तरह की चर्चा होने लगी। आज वह लड़की सीआइएसएफ की सिपाही से सब-इंस्पेक्टर बनकर पटना एयरपोर्ट पर तैनात है। वह कहती है कि मुझे परिवार पर बोझ नहीं बनना है, बल्कि मेरी जैसी सैकड़ों लड़कियों के लिए प्रेरणा बनना है। पहले पहल परिवार से लेकर समाज के लोग मुझे कुछ नहीं समझते थे। पुलिस या सिपाही की नौकरी को निम्नस्तर का तथा लड़कों के लिए समझते थे। लेकिन मेरी एक जिद् ने जिंदगी बदल दी। आज पूरे परिवार की देखभाल के साथ अपनी ड्यूटी भलीभांति निभा रही है। वह अगो कहती है कि स्कूल से ही माता-पिता भेदभाव करते हैं। बेटे को अच्छे विद्यालय में शिक्षा और बेटियों को सरकारी या उससे निम्न स्तर के विद्यालयों में शिक्षा देते हैं। यदि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करनी पड़े, तो परिवार के लोगों के लिए बड़ी मुसीबत बन जाती है। वहीं दर्जनों स्कूल जाने वाली लड़कियों व महिलाओं ने कहा कि कितना भी काम करो, फिर भी परिवार के लोग लड़कों व पुरुषों से कमतर समझते हैं। जबकि मनोविज्ञान का मानना है कि महिलाओं में एक साथ कुशलता से दो-तीन काम करने की क्षमता है। यही वजह है कि एक मां बच्चे को दूध पीलाते हुए खाना भी बना लेती है व खुशामद भी कर लेती है। 
बिहार के हाजीपुर की उर्मिला कहती हैं कि समाज में लड़कियां जब कोई काम करती हैं, तो ताने और फब्तियां सहनी पड़ती है। आज वह सिलाई को व्यवसाय के रूप में चुनकर खुष है। 'कुशल युवा प्रोग्राम' में काम कर रही ममता कहती हैं कि मैंने अपनी पहचान से समाज को आइना दिखाया। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था पर वक्त ने साथ नहीं दिया। मैंने शून्य से शुरूआत की। पढ़ाई जारी रखी और आज खुद का कार्य करके बहुत खुश हूं। हाजीपुर स्थित एमपीएस अकादमी की प्रधानाध्यापिका प्रभा कहती हैं कि शादी के 10 साल बाद अपने कैरियर की शुरूआत एक शिक्षिका के रूप में की। समाज में उपेक्षित महिलाओं के दर्दों को समझने का बाखूबी प्रयास किया। महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, अन्याय, दुर्व्यवहार के लिए लड़ी। वे कहती हैं कि मजबूत इरादों से ही मंजिल प्राप्त किया जा सकता है। इसके अलावा सारधा जी, अन्नु गुप्ता आदि महिलाएं आज भी आसपास की महिलओं के हक दिलाने के लिए सराहनीय कार्य कर रही हैं।   
वस्तुतः समाज को पुनः सामाजिक दायित्व का निर्वहन करना होगा। पारिवारिक स्तर पर महिलाओं को सम्मान तथा अहमियत देनी  होगी । लड़का-लड़की की शिक्षा में अंतर तथा लैंगिक पूर्वाग्रह को तटस्थ करना होगा। लड़कियों के लिए कौशल विकास की दिशा में पूरी गंभीरता से अधिक-से-अधिक अवसर देना होगा। उद्यमिता विकास के लिए केवल प्रचार नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर काम करना होगा। महिलाओं को एकजुट होकर महिला हिंसा के खिलाफ सड़क से संसद तक आवाज लगानी होगी। सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर महिला स्वास्थ्य के प्रति मुहिम चलानी होगी, तब मिलेगी आधी आबादी को सच्चा न्याय, स्वतंत्रता तथा सुरक्षा।  



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