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अब गांव में नहीं बजती बैलों की घंटियां

अमृतांज इंदीवर

अब गांव में हीरा-मोती की जोड़ियां बमुश्किल दिखती हैं। उसके गले में घंटियों की आवाज मंद हो गयी है। महादेव जी का बसहा बैल अर्थात् नंदी भी नहीं दिखता है। धरती को हरा-भरा रखने वाले, कंधे पर बोझ उठाने वाले हीरा-मोती की जगह ट्रेक्टर ने ले ली है। प्रेमचंद की कहानी ’दो बैलों की कथा’ को समाज भूलता जा रहा है। न झूरी रहा, न पशुप्रेम। अब जिधर देखो, उधर बेदर्द गया व दढ़ियल (जल्लाद) जान पड़ता है। उक्त कहानी में पशु के अंदर व्याप्त मानवीय गुणों व मनुष्य की मनोदशा का सजीव चित्रण किया गया है। मुख्य पात्र झूरी पशु प्रेम को रेखांकित करता है। लेखक ने बैलों को निहायत ही सीधापन, सहिष्णुता व कर्मठता का बखान किया है।

     परिणामतः प्रदूषणमुक्त जुताई से हरियाली के साथ-साथ खेतों को पर्याप्त गोबर खाद मिलना बीते दिनों की बात हो गयी है। ट्रेक्टर  की कर्कश आवाज वातावरण में जहर घोल रही है। धरती के कोमल सीने को ट्रेक्टर में लगे फार (तेज ब्लेड) चीरते-फाड़ते आगे बढ़ रहे हैं। बैलों की संख्या दिनानुदिन घटती जा रही है। बैल पालक प्रेमचंद की कहानी के झूरी का चरित्र निभाना खर्चीला समझते हैं। जबकि बैल का अस्तित्व सिंधु घाटी सभ्यता से पाया जाता है। कई देशों में बैलों की पूजा-उपासना की जाती है। बिहार, झारखंड व अन्य राज्यों में महापर्व छठ के अवसर पर सूर्यदेव के साथ-साथ बैलों की भी पूजा की जाती है। ताम्र युग में बैल को वृषभ राशि के प्रतीक के रूप में मान्यता दी गयी थी। मिस्र में बैलों का एपिस (मिस्र के देवता) के रूप में पूजा की जाती है। पर, आधुनिकता व मशीनीकरण की वजह से बैलों की तस्करी बढ़ती जा रही है। हीरे और मोती विलुप्ति के कगार पर हैं।

 मुजफ्फरपुर के साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर पंचरूखिया गांव में केवल 10 जोड़े बैल ही किसानों के खेतों में जुताई कर रहे हैं। जबकि चांदकेवारी गांव में एक दशक पहले तक 100 जोड़े बैल थे। गणेश राय, रामश्रय राय, लक्षमण भगत, राजेन्द्र भगत, पथल राम आदि किसानों के पास आज लगभग 25 जोड़े बैल हैं। इन बैलों के बीच किसानों का गहरा संबंध है। किसान सुबह उठते ही गोबर-करसी, झाड़ू-बहारु करते हैं, जिससे कसरत के साथ गृहस्थी भी ठीक-ठाक चलती है। किसान भूसा, कुन्नी, चारा व रसोई घर के अवशेष मवेशी को देते हैं। आज इस गांव के बड़े किसानों के दरवाजे पर 6 ट्रेक्टर हैं। अब अधिकांश किसान बैल बेच चुके हैं। उन्हें सुबह-सवेरे बैलों की घंटियों की मधुर आवाज सुनाई नहीं पड़ती, बल्कि  ट्रेक्टर  के धुएं व कर्कश आवाज सुनाई पड़ती है। शिक्षक लालबाबू राय कहते हैं कि बैल से नकदी आमदनी भी कम नहीं है। एक कट्ठा जमीन की जुताई के लिए हलवाहे को 50 रुपये मिलते हैं। बैलगाड़ी से माल ढोने का काम कम-से-कम गाड़ीवान को 300 रुपये मिलते हैं। हुस्सेपुर पंचरूखिया के किसान उमेश राय कहते हैं कि अब बैल कहां मिल रहा है ? बैल तो कटकपुर जा रहा है यानी, जल्लाद खरीद रहे हैं। बैलों की कीमत बाजार में 40-50 हजार रुपये तक हो गयी है। महंगाई की वजह से बैल से अधिक सस्ता  ट्रेक्टर है। बाजार में चोकर, खल्ली आदि महंगे होते जा रहे हैं। दूसरी ओर बैलों की हिफाजत करना मुश्किल है। बिना दवा सूइयों के काम नहीं चल रहा। डुमरी के किसान पंकज कुमार का मानना है कि बैल की शक्ति 2 हाॅर्स पावर होती है, जबकि  ट्रेक्टर भी दो-तीन सिलिंडर का होता है। एक बैल दिनभर में 10 कट्ठा जुताई कर सकता है। बैलों के गोबर से उर्वरा शक्ति मिलती है। बैल घास व जंगल को ग्रास बनाते हैं, जबकि  ट्रेक्टर से केवल उर्जा की खपत होती है। ओमप्रकाश भगत कहते हैं कि महंगाई की वजह से बैल की खुराक महंगी है और कीमत भी काफी बढ़ गयी है। कौन जोखिम लेगा ? कल बीमारी के कारण मौत हो गयी, तो पैसे डूब जायेंगे।  ट्रेक्टर में ऐसी बात नहीं है।। बैलों की संख्या घटने की वजह यह भी है कि अधिकांश मवेशी जैसे- गाय, भैंस, बैल आदि दूसरे प्रांतों व मुल्कों में तस्करी के लिए भेजे जा रहे हैं। सस्ता टेªक्टर है जो प्रति कट्ठा 40 रुपये की दर से जुताई करता है। मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी मानसी नावादा के किसान परिमल कुमार कहते हैं कि 10 वर्ष पहले हमारे गांव में 50 जोडे़ं बैल किसानों के दरवाजे पर बंधे रहते थे। पर, आज पूरे गांव में एक्के-दुक्के बैल बचे हैं। गोबर की जगह कंपनियों की खाद खेतों में पटायी जा रही है, जिसकी वजह से साग-सब्जियों का स्वाद एवं शुद्धता खत्म हो गयी है। एक समय था जब बैल-गायें गोधूलि बेला में चारागाह से लौटती थी, तो उसकी मधुरिम ध्वनियां गुंजमान हो जाती थी। अब तो ट्रेक्टर की कानफाड़ू आवाज व रासायनिक खाद से हवा-पानी से लेकर मिट्टी तक प्रदूषित हो रही है।

बैल नहीं बचा तो खेती बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खादों से करनी पडे़गी और मिट्टी को जैविक तत्व व गोबर नहीं मिलेंगे। इसका असर जीव-जंतुओं के जीवन पर भी पड़ेगा। महंगाई को देखते हुए सरकारी स्तर पर बैलों के संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है। तभी बचेगा हीरा-मोती व उर्वर मिट्टी।(Photo Credit : google, maxresdefault)



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