डाॅ संतोष सारंग
आलोचना के सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्षों से होकर गुजरना हो, तो सतीश कुमार राय की हालिया प्रकाशित आलोच्य कृति ‘आलोचना के सूत्र’ के पन्ने पलटने होंगे। अभिधा बुक्स से छपी यह पुस्तक सतीश कुमार राय लिखित सत्तरह आलेखों का संग्रह है। कवि व गीतकार के रूप में अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू करने वाले सतीश राय की लेखनी जब आलोचना के सूत्र तलाशने लगती है, तब उनकी आलोचना-दृष्टि और निखर जाती है। सतीश आलोचना-साहित्य में भाव व विचार का समन्वय रूप उपस्थित करते हैं।
समकालीन हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले दिवंगत प्रो. रेवतीरमण को समर्पित इस पुस्तक की भूमिका में सतीश लिखते हैं कि शिक्षक होने के कारण मेरा झुकाव शोध की ओर है। शोध के माध्यम से ही मैंने आलोचना के सूत्र पकड़ने की कोशिश की है और उसी कोशिश की परिणति यह पुस्तक है।
निस्संदेह नवोन्वेषी अध्येताओं, साहित्य-साधकों, चिंतक-विमर्शकारों के लिए यह पुस्तक काफी उपयोगी हो सकती है। संत कबीर, प्रेमचंद, आचार्य शिवपूजन सहाय, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, गोपालसिंह ‘नेपाली’, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री से लेकर कथाकार-संपादक राजेंद्र यादव व प्रसिद्ध आलोचक नवलकिशोर नवल तक की कृतियों का सतीश अपनी आलोचना-दृष्टि से गहन मूल्यांकन करते हैं। वे ‘रश्मिरथी’ को मानवता की विजय का आख्यान बताते हैं, तो गोपालसिंह ‘नेपाली’ की रचनाओं में सौंदर्य-चेतना के विकसित रूप का भी दिग्दर्शन कराते हैं। राजेंद्र यादव होने का अर्थ तलाशने के साथ ही लेखक नंदकिशोर नवल के आलोचनात्मक काम व वैचारिक दृष्टिकोण को कसौटी पर करने का भी प्रयास करते हैं।
कबीर के प्रेम-दर्शन को व्याख्यायित करते हुए सतीश कुमार राय लिखते हैं कि कबीर का प्रेम अपनी अभिव्यक्ति के लिए कोई मध्यस्थ नहीं मांगता। इसीलिए वह पंडित-पुरोहित और मुल्लाओं की सत्ता को चुनौती देता है। कबीर का प्रेम साधना से दीप्त है। वहीं नेपाली के प्रेम-दर्शन व सौंदर्य-चेतना को रेखांकित करते हुए वे उनकी ‘उमंग’ कविता की कुछ पंक्तियों को संदर्भित करते हैं। कवि नेपाली प्रेम को जीवन-शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। नेपाली की दृष्टि में प्रेम से बढ़कर कोई धन नहीं, प्रेमस्थल से बड़ा कोई तीर्थ नहीं, प्रेम की अनुभूति से गहरी कोई अनुभूति नहीं है। नेपाली के सौंदर्य-बोध व प्रेम-दर्शन की मौलिक व्याख्या के क्रम में लेखक अपनी वैचारिकी को उदात्त प्रेम व नैसर्गिक सौंदर्य के संसर्ग से संपुष्ट करते हैं।
‘‘जीवन भी मिला, प्यार भी, क्या और चाहिए?
गुलशन मिला, बहार भी, क्या और चाहिए?’’
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की इन पंक्तियों के हवाले से लेखक कबीर व नेपाली के प्रेम-दर्शन को जीवन के राग-रंग से जोड़ कर विस्तार देता है। सतीश कुमार राय ने रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी कृति ‘रश्मिरथी’ व ‘कुरुक्षेत्र’ को भी तरुण-चिंतन व नये नजरिये से देखने-परखने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि ‘रश्मिरथी’ में कर्ण की उपस्थिति निस्संदेह दलितों के नेता के रूप में हुई है। इसका संपूर्ण प्रतिकार दलितों के प्रतिकार का ही पर्याय है। वह उन सबका है जिन्हें सभ्य समाज ने पददलित कर रखा है। वह त्रस्त मानवता के लिए एक आदर्श है।
सतीश कुमार राय हंस के संपादक रहे राजेंद्र यादव होने का अर्थ समझाते हुए लिखते हैं कि राजेंद्र यादव व्यक्ति नहीं, संस्था थे- निरंकुश होते हुए भी लोकतांत्रिक। वे आरोपों-आक्षेपों से घिरकर भी मस्तमौला बने रहे, विवादों में संवाद के सूत्र तलाशते रहे, नयी प्रतिभाओं को तराशतेे रहे। ‘कालजयी पत्रकारिता की विरासत’ शीर्षक आलेख में सतीश ‘प्रताप’, ‘प्रभा’ व ‘सरस्वती’ आदि बहुचर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं के उत्कृष्ट लेखों व विशेषांकों पर रोशनी डालते हैं। निष्कर्षतः ‘आलोचना के सूत्र’ पुस्तक लेखक सतीश कुमार राय की सूक्ष्म आलोचना-दृष्टि का ही प्रतिबिंबन नहीं करती है, वरन् आलोचना-साहित्य को भी समृद्ध करने में खासा योगदान देती है।
समीक्षा: डाॅ संतोष सारंग
आलोचना के सूत्र
सतीश कुमार राय
अभिधा बुक्स/500 रुपए
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