बिखरना तो है
बीजों की तरह
बिखरना ज़रूरी है,
बढ़ने के लिए,
कुछ नया गढ़ने के लिए।
जो बीज कनस्तर में कैद रह गए,
वे सड़ जाएंगे,
समय बीतने पर
नाहक बदबू फैलाएंगे।
इसलिए,
कनस्तर छोड़िए,
खुद को बिखेरिए।
पर याद रहे—
बिखरते हुए अपनी जड़ों को मत भूलिए।
अन्यथा,
अगर शील (पत्थर) पर गिर गए,
तो तपती धूप में,
बिन पानी,
बिन पोषण,
कुछ गढ़ने के बजाय
सिर्फ सर्वनाश ही होगा।
मैं फिर कहता हूं—
बिखरना तो है,
बीजों की तरह।
लेकिन
माटी से मिलिए
जहां जीवन है,
जहां जल है,
जहां पोषण है,
जहां रास्ते हैं,
जहां खिलने के साधन हैं।
वहीं,
माटी से मिलकर
खुद खिलेंगे,
अपने बीजों को भी खिला सकेंगे।
और तब—
हम एक शिक्षित, सभ्य समाज बना सकेंगे,
जो आने वाले बीजों को
याद दिलाता रहेगा कि—
गिरना नहीं है,
शील पर,
मिलना है,
मिट्टी से।
जहां खिलना है,
जहां खिलाना है,
जहां एक नया संसार बसाना है।
- अमरेंद्र कुमार
- शिक्षक
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