डॉली आर्या
कपकोट, उत्तराखंड
पिछले सप्ताह केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े में बताया गया है कि देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक हो गई है. सर्वेक्षण के अनुसार प्रति एक हज़ार पुरुषों पर 1020 महिलाएं हैं. माना यह जा रहा है कि आज़ादी के बाद यह पहली बार है जब देश में महिलाओं की संख्या एक हज़ार को पार कर गई है. आंकड़ों के अनुसार सुखद बात यह है कि शहरों की तुलना में गांवों में यह स्थिती और भी अधिक बेहतर है. शहरों में जहां प्रति एक हज़ार पर 985 महिलाएं हैं वहीं गांवों में यह संख्या 1037 दर्ज की गई है. राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार जन्म के समय भी लिंग अनुपात में सुधार हुआ है. 2015-16 में जहां जन्म के समय प्रति एक हज़ार बालक पर 919 बालिका थी, वहीं 2019-20 में बढ़कर 929 हो गया है.
राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण का यह आंकड़ा
वास्तव में एक सुखद एहसास दिला रहा है. यह इस बात को भी स्पष्ट कर रहा है कि अब
देश में लोगों की सोच बदल रही है. अब बेटी पर बेटे को प्राथमिकता देने वाली
संकीर्ण विचारधारा में परिवर्तन आ रहा है. अब माता-पिता को यह एहसास होने लगा है
कि जो उम्मीदें और आशाएं वह केवल बेटों से करते थे वह बेटी भी पूरी कर सकती है.
दुनिया के किसी भी क्षेत्र में और कोई भी फील्ड में लड़के की तरह लड़कियां भी
कामयाबी के झंडे गाड़ सकती हैं. वंश को आगे बढ़ाने और मरने के बाद केवल बेटे से ही चिता को आग देने से मोक्ष मिलेगा, यह विचार बदलने
लगा है. अब घर में लड़की के जन्म लेने पर भी खुशियां मनाई जाती हैं. उसे भी लड़के की तरह
अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया जाता है और घर के अंदर भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने
के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. धीरे धीरे ही सही, समाज की सोच में
परिवर्तन आने लगा है और लड़की द्वारा मनपसंद जीवनसाथी चुने जाने को प्राथमिकता दी
जाने लगी है.
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे सकारात्मक सोच पूरी तरह
से ग्रामीण क्षेत्रों में क्रियान्वित नज़र आती है? क्या वास्तव में
देश के दूर दराज़ इलाकों में लड़का और लड़की के बीच किया जाने वाला फ़र्क़ मिटता जा रहा
है? क्या ऐसे क्षेत्रों में लड़कों की तरह लड़कियों को भी आगे
पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है? शायद इसका जवाब
अभी भी पूरी तरह से हां में नहीं मिलता है. अभी भी देश के कुछ राज्यों के दूर दराज
ग्रामीण क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां लड़का और लड़की के बीच अंतर किया जाता है. लड़कियों
की तुलना में लड़कों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. घर से लेकर बाहर
तक उसे हर काम में प्राथमिकता दी जाती है. प्रसव के दौरान लड़का पैदा होने की कामना
की जाती है और उसके जन्म पर लड़कियों की तुलना में अधिक उत्सव मनाया जाता है. अधिक
से अधिक बेटा को जन्म देने वाली महिलाओं को समाज में अधिक सम्मान दिया जाता है.
हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि देश के ऐसे कई ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां आज भी लड़का-लड़की के बीच भेद किया जाता है. हालांकि पहले की तुलना में इन क्षेत्रों के लोगों की सोच में भी बदलाव आया है. इन्हीं में एक उत्तराखंड के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र कपकोट तहसील का असो गांव भी है. जहां जागरूकता और शिक्षा की कमी के कारण लड़कियों की अपेक्षा लड़कों पर अधिक तवज्जो दी जाती है. शिक्षा की कमी के कारण गांव में अंधविश्वास भी अपनी जड़ें जमाये बैठा है. अंधविश्वास का आलम यह है कि लड़का के जन्म के लिए जानवरों की बलि तक चढ़ाई जाती है. जिस घर में गर्भवती महिला के प्रसव का समय जैसे जैसे नज़दीक आता है, वैसे वैसे उसकी सेहत से अधिक कर्मकांड पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है ताकि घर में लड़के का जन्म हो सके. लेकिन अगर लड़की का जन्म होता है तो फिर उसे वह सम्मान नहीं दिया जाता है, जिसकी वह हकदार होती है. यहां तक कि जिस महिला की लड़के से अधिक लड़कियां होती हैं उसका समाज में भी तिरस्कार किया जाता है. कई बार अनैतिक रूप से लड़की को गर्भ में ही मार देने का कुकृत्य तक किया जाता है.
यदि लड़की जन्म ले भी लेती है तो उसे अच्छी शिक्षा देने की
जगह बचपन से ही घर के काम में लगा दिया जाता है. उसे उसके हिस्से का हक़ तक देने से
वंचित कर दिया है. यद्यपि कुछ घरों में लड़कियों को स्कूल भेजा जाता है, लेकिन यदि 12वीं या कॉलेज
गांव से दूर होता है तो 10वीं के बाद ही उसकी पढ़ाई छुड़वा दी जाती है और जल्द ही उसकी
शादी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. वहीं दूसरी ओर लड़कों को पूरी आज़ादी मिलती है.
उसका अच्छे स्कूल में दाखिला करवाया जाता है और उसकी प्रत्येक ज़रूरतों को पूरा
किया जाता है. दरअसल शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण माता-पिता की यह सोच होती
है कि लड़की को पढ़ कर क्या करना है? उसे तो पराए घर
ही जाना है. कौन सा लड़की हमें खिला रही है? बुढ़ापे का असली
सहारा तो लड़का ही बनेगा. गांव के कुछ मां बाप की यह सोच है कि अगर लड़की बीच में
बोले तो, उसे तमीज नहीं होने का ताना सुनाया जाता है, जबकि यही गलती
अगर लड़के करते हैं तो उसे नज़अंदाज़ कर दिया जाता है.
Covid-19 के दौर में जबकि ऑनलाइन पढ़ाई का सिलसिला चल रहा है, ऐसे में लड़कों को
फोन तो उपलब्ध करा दी जाती है, लेकिन लड़कियों को यह कह कर मना कर दिया जाता है कि
इससे लड़की बिगड़ जाएगी. यही कारण है कि पिछले दो वर्षों में ऑनलाइन पढ़ाई का सबसे
अधिक नुकसान गांव की लड़कियों को उठाना पड़ा है. कई लड़कियों का इस दौरान पढ़ाई ने
नाता बिल्कुल टूट चुका है. हालांकि परिस्थिति ठीक होने और स्कूल फिर से खुलने से
कई लड़कियों को राहत मिली थी और वह फिर से पढ़ाई की ओर लौट रही हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी
हैं जिन्हें शादी के नाम पर आगे पढ़ने से रोक दिया गया है. ऐसी लड़कियां अब शायद ही
कभी पढ़ सकेंगी.
बहरहाल, देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक होने से खुश हो जाना कोई अर्थ नहीं रखता है. यह ख़ुशी उस वक्त तक अधूरी है जब तक सभी लड़कियों को एक समान शिक्षा और अधिकार नहीं मिल जाते हैं. जब तक बिना किसी भेदभाव और बंदिशों के उन्हें आगे बढ़ने और अपनी पसंद के क्षेत्र में काम करने की आज़ादी नहीं मिल जाती है. लड़कियों के प्रति समाज को हर स्तर पर अपनी सोच बदलने की ज़रूरत है. उसे आज़ादी देना भीख नहीं बल्कि उसका संवैधानिक अधिकार है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केवल संख्या बढ़ने से नहीं बल्कि अवसर प्रदान करने से लड़कियां आगे बढ़ेंगी. (चरखा फीचर)
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