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विरासत : केसरिया का बौद्ध स्तूप

 केसरिया का बौद्ध स्तूप

अविनाश  कुमार

मजुफ्फरपुर एवं पूर्वी चंपारण की सीमा पर स्थित केसरिया प्रखंड का पूरा भूभाग अपने अंदर धर्म, इतिहास और संस्कृति के अनगिनत रत्न छिपाये हुए है। इसको प्रकाश में लाने पर न सिर्फ इस प्राचीन स्थल की गौरवशली परंपरा एंव पुरातात्विक सांस्कृतिक विरासत को नया आयाम मिलेगा अपितु राजा बेन की भूमि तथा बौद्ध धर्म का केंद्र होने के कारण यह स्थान पूरे विश्व  के पर्यटन पटल पर अपनी धार्मिक समरसता के कारण विशिष्ट पहचान बना पाने में सक्षम होगा। 

विरासत : केसरिया प्रखंड मुख्यालय से करीब दो किलोमीटर दक्षिण करी ओर ईंटों के ढेर के रूप् में खड़े स्थान को किंवदंतियाँ पुराण प्रसिद्ध राजा बेन का गढ़ कहती है, तो प्राप्त साक्ष्य इसे अति प्राचीन बौद्ध स्तूप कहते हैं। देउरा नाम से विख्यात इस स्थान के बारे में किंवदंती है कि यह स्थान प्रतापी राजा बेन का गढ़ था। वह इतना सत्यवान था कि उसकी रानी कमलावती कमल के पत्ते पर बैठकर स्थान करती थी। लेकिन वह सत्यभ्रष्ट हो गया तथा प्रजा का शोषण करने लगा। तब क्रोधित होकर ऋषियों ने उसकी हत्या कर दी। उस समय तक राजा बेन का कोई उत्तराधिकारी पैदा नहीं हुआ था। पुराणों की कथा के अनुसार बुद्धिमति रानी ने अपने तथा प्रजा के हित में राजा बेन के शव को छिपाकर तत्कालीन वैज्ञानिक पद्धति से उसका मंथन करवाया। राजा बेन के मृत शरीर की जांघ के मंथन से एक काला बदसूरत बालक उत्पन्न हुआ जिसे राज्य के योग्य नहीं समझा गया। बाद में मृतक राजा बेन की दाहिनी भुजा का मंथन कराया गया जिससे पृथु नामक बालक की उत्पत्ति हुई। यह पराक्रमी तथा कुल शासक बना। पृथु नाम से ही इस धरती का नाम पृथ्वी रखा गया है।

इस स्थल को उत्खनन की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्थल एक बौद्ध स्तुप के खंडहर के रूप में अपने अस्तित्व को साकार करता है। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा की जा रही खुदाई के क्रम में प्राप्त महात्मा बुद्ध की दो अलग-अलग मुद्राओं की दो प्रतिमाएं इसके प्राचीन बौद्ध स्तूप होने की घोषणा करते हैं।पूर्व में भारतीय पुरातत्व क ेजनक जेनरल कार्निघम ने इस स्थान की खुदाई करायी थी और प्राप्त सामग्री के आधार पर इसे बौद्ध स्तूप माना था। इस स्ल पर प्राचीन समय में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था एवं इस तथ्य की पुष्टि की थी कि भगवान बुद्ध अपने जीवन काल की अंतिम यात्रा में वैशाली से केसरिया आये थे तथा इस स्थान में रात्रि में विश्राम किया था। उन्होंने वैशाली से अपने साथ आये लिच्छिवियों को अपना भिक्षापात्र देकर यहीं से वैशाली प्रस्थान करने का अनुरोध किया था। कालान्तर में इस स्थल पर बौद्धस्तूप का निर्माण कराया गया। बौद्ध स्तूप के पास के निवास स्थल की भी खुदाई करायी गयी एवं पाया गया कि यह स्थल कभी प्राचीन मठ रहा होगा। 

इस बौद्ध स्तूप की पहचान आधुनिक काल में हुई है पर यहां प्रचलित पांच ईंटों की अद्भुत पूजा का विधान यहां परंपरागत रूप से चला आ रहा है। इय पूजा-विधान का आरंभ कब हुआ और कहां सु हुआ यह किसी को ज्ञात नहीं है लेकिन आज भी स्थानीय लोग इस पूजा-विधान का पूरी आस्था के साथ पालन करते हैं।

बौद्ध स्तूप पर दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ से जिस मार्ग से लोग चढ़ते हैं नीचे से लेकर आधी दूरी तक जहां-तहां पांच ईंटों के टुकड़े उपर-नीचे जोड़े मिलते हैं। इस तरह जोड़कर ईंटों को खड़ा करने के बाद लोग उपर चढ़ते हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि बिना ईंट जोड़े जो भी उस पर चढ़ेगा वह गिर जायेगा तथा उसके पांव टूट जाएंगे। यही कारण है कि यहां के स्थानीय लोग बिना ईंटों को जोड़े डक्त स्मारक पर नहीं चढ़ते हैं। फिर उतरने के बाद उसे बिखरा देते हैं। कुछ लोग वहीं ईंटों को जोड़कर मनौती मानकर  अपने घर ले जाते हैं। और मौती पूरी होने के बाद इसी ईंट को जोड़कर चढ़ते हैं।स्तूप पूजा के इस विधान को श्रद्धावश  लोग आज भी अपनाये हुए हैं। स्तूप पूजा की यह अनोखी पंरपरा यहां लोकवृति का रूप् ले चुकी है। 

देवी माता का मंदिर इसी परिसर में स्थ्ति देवी मां का एक अद्भुत मंदिर है। इस मंदिर का इतिहास 2500 वर्ष पूराना है। कहते हैं कि राजा बेन के दुराचार से क्षुब्ध होकर देवी माता नाराज होकर महल से बाहर आ गयी थीं। राजा पृथु जब शासक बने तो उन्होंनग अपने तप क ेबल से देवी माता को प्रसन्न कर लिया। उन्होंने देवी माता से ममतामयी रूप  में सदैव अपने महल में निवास करने का वर मांगा। इसके बाद जब तक राजा पृथु जिंदा रहे देवी माता की ममतामयी छाया उनके उपर आषार्वाद तथा स्नेह का पुष्प बरसाती रही। आज भी राजा बेन के गढ़ के आसपास माता रात के सन्नाटे में राह भटके लोगों को अपनी ममता की छांह देवकर न सिर्फ उसकी रक्षा करती है बल्कि उन्हें राह भी दिखलाती हैं। रात्रि में ठहरे तथा सच्चे मन से पुकारने वाले भक्त को आज भी देवी माता का दर्षन हो जाते हैं। 

इस सिद्ध पीठ के संबंध में पत्रकार भोपाल भारती ने बताया कि वर्ष 1985 में नवरात्र के उपलख्य में प्रसाद वितरण हेतु एक बड़े पात्र में 100 लीटर दूध में चावल तैयार की गया।  खीर अभी तक पकी भी नहीं थी कि खैलते हुए खीर में एक काला नाग निकटस्थ वृक्ष से गिर पड़ा तथा कुछ क्षण तक खीर पात्र में दौड़ता रहा मानो मंथन कर रहा हो, फिर उस खीर में से इत्मीनान से निकला  और देखते-देखते देउरा  में घुस गया।इस अद्भुत लीला पर वहां उपस्थित अपार भीड़ आश्चर्यचकित थे तथा यह सोच रहे थे कि सर्प के गिरने से यह खीर विषाक्त हो गयी होगी। अतः मृत्यु भय से कोई भी इस प्रसाद को ग्रहण करना चाहता था। 

अंत नवरात्र का यज्ञ करने वाले गरीब ब्राह्मण ने सर्वप्रथम प्रसाद को ग्रहण किया। प्रसाद पाते ही ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो उसका शरीर दिव्य आभा से भर गया हो। फिर प्रसाद पाने हेतु भक्तों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। अंत में वहां हजारों की संख्या में उपस्थित भक्तों के बीच प्रसाद स्वरूप् खीर के चावल का दो-दो दाना वितरित किया गया कहते हैं कि यां जो भी नर-नारी सच्चे हृदय से जो भी मन्नतें मानते हैं उसकी मुराद अवश्य  पूरी होती है। (साभार  : बिहार के लोकतीर्थ )

Writer : संस्थापक, एमबीआरआई
भटौलिया, मुज.।

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