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बिहार में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर क्या है?

अमृतांज इंदीवर 

वर्तमान समय में नवनियोजित शिक्षक पूरी निष्ठा से बच्चों को पढ़ा रहे हैं। उनके अंदर ज्ञान देने की भावना प्रबल है। इसके लिए सरकारी स्तर पर भी शिक्षकों को सही वेतन और सुविधा देकर ईमानदार शिक्षा अधिकारियों को स्कूली हालत सुधारने हेतु पहल करनी चाहिए। उनके काम की सराहना करनी चाहिए। प्राइवेट स्कूल की तरह अभिभावक शिक्षक मीटिंग होनी चाहिए। सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होना चाहिए। विज्ञान प्रदर्शनी स्थानीय स्तर पर लगनी चाहिए। कला और विज्ञान के संगम के बीच ही बच्चों में नेतृत्व की क्षमता, जीवन कौशल, नैतिक मूल्यों का विकास संभव है।

किसी भी राष्ट्र के लिए बुनियादी सेवाओं की सुदृढ़ व्यवस्था वहां की आर्थिक व सामाजिक स्तर को मजबूत करती है। जिस इमारत की बुनियाद ही कमजोर हो भला वह इमारत कैसे पायेदार हो सकती है। पूरे भारत में खासकर ग्रामीण (सरकारी स्कूल व पीएचसी) शिक्षा और स्वास्थ्य की बदहाल स्थिति आये दिन अखबारों की सुर्खियां बनती है। सुर्खियां आमलोगों को कुछ समय के लिए उद्वेलित तो करती है पर, हुक्मरानों के कान पर जूं नहीं रेंगती। कुछ ही दिनों में खबर की तपिश  ठंडी पड़  जाती है। कागजी लेखा-जोखा में स्कूल काॅलेज, पीएचसी बिलकुल चंगा और स्वस्थ संचालित हो जाते हैं। ऐसे में शिक्षित और स्वस्थ भारत की कल्पना करना बेमानी है। 

जब बात आती है बिहार की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की तो यहां सरकारी कर्मचारी की इमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा स्कूल और अस्पताल परिसर में जाने मात्र से पता चल जाता है  कि बिहार में सुशासन  है या कुशासन । ग्रामीण में स्कूल के लिए एक कहावत है- ‘बारह बजे लेट नहीं दो बजे भेंट नहीं।’ वहीं ग्रामीण अस्पताल व पीएचसी पशुओं का चारागाह बना हुआ दृष्टिगोचर होता है। इसका मिसाल है मुजफ्फरपुर जिले केपश्चिमी  क्षेत्र के देवरिया स्थित चैनपुरा अस्पताल जो देवरिया की लगभग 10 हजार आबादी का लाइफलाइन था। 

आज वहां घासफूस और जीर्णशीर्ण अवस्था में अस्पताल खंडहर के रूप में तब्दील हो गया है। स्थानीय निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता फूलदेव पटेल कहते हैं कि यहां आयुष्मान भारत का भी सेंटर है। यहां स्वास्थ्य विभाग की उदासीनता की वजह से पदस्थापित डाॅक्टर भी नदारद रहते हैं। पास की चाय दुकान पर बैठे स्थानीय लोगों ने कहा कि गरीबों के लिए शासन और सत्ता को चिंता ही नहीं है। यहां प्रत्येक पांच साल पर प्रतिनिधि जरूर बदल जाते हैं पर अस्पताल की हालत ज्यों की त्यों बनी रहली है। जिसकी वजह से शहर की ओर रूख करना पड़ता है। निःशुल्क इलाज की जगह भारी भरकम रकम चुकाना पड़ता है। दूसरी ओर ग्रामीण स्तर पर स्थापित उपस्वास्थ केंद्र पर केवल टीकाकरण का कार्य ही किया जाता है। 

वहीं शिक्षा व्यवस्था की बात की जाए तो कोविड के बाद स्कूल खुलते ही बच्चं स्कूल की ओर रूख किए। पर लचर व्यवस्था की वजह से व्यवसिथत शिक्षा नहीं हो पा रही है। इसमें अभिभावक भी बच्चों के भविष्य के लिए कम चिंतित है। उन्हें सरकारी स्कीम- पोषाहार, डेªस और छात्रवृति की फिक्र रहती है। कभी शिक्षकों से यह नहीं पूछते कि मेरे बच्चे की पढ़ाई-लिखाई कैसी है? क्या स्तर है? हमें क्या करना होगा? आदि। जिसकी वहज से शिक्षक भी इन चीजों पर ध्यान कम देते हैं। और अपने बच्चों को मोटी रकम देकर कोचिंग संस्थाओं में शिक्षा देने के लिए भेजते हैं। दो दशक पहले तक गांव के जाने-माने और पढ़े-लिखे लोग स्कूल का निरीक्षण भी करते थे तो शिक्षकों को जिम्मेदारियों का बोध होता था। आज सुखी-संपन्न लोगों के बच्चे प्राइवेट स्कूल/ कन्वेंट में पढ रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से पठन-पाठन की व्यवस्था बिगडे़गी। मजदूर और अभावग्रस्त किसानों को दो जून की रोटी जुटाने में ही समय व्यतीत हो जाता है। उन्हें पढ़ाई से ज्यादा खिचड़ी की चिंता रहती है। 

इधर, नए शिक्षकों के आने के बाद स्कूल में फिर से पढ़ाई का वातावरण बन रहा है। शिक्षक चंदन पांडे कहते हैं कि बच्चे ही देश  के भावी कर्णधार हैं। जैसी शिक्षा होगी, वैसा राष्ट्र होगा। वर्तमान समय में नवनियोजित शिक्षक पूरी निष्ठा से बच्चों को पढ़ा रहे हैं। उनके अंदर ज्ञान देने की भावना प्रबल है। इसके लिए सरकारी स्तर पर भी शिक्षकों को सही वेतन और सुविधा देकर ईमानदार शिक्षा अधिकारियों को स्कूली हालत सुधारने हेतु पहल करनी चाहिए। उनके काम की सराहना करनी चाहिए। प्राइवेट स्कूल की तरह अभिभावक शिक्षक मीटिंग होनी चाहिए। सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होना चाहिए। विज्ञान प्रदर्शनी स्थानीय स्तर पर लगनी चाहिए। कला और विज्ञान के संगम के बीच ही बच्चों में नेतृत्व की क्षमता, जीवन कौशल, नैतिक मूल्यों का विकास संभव है। साथ ही स्कूल शिक्षक से लेकर अधिकारियों के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ने जाने लगेंगे, तो स्कूल का काया पलट हो जाएगा। निश्चित  रूप से सपनों का भारत बनने में देर नहीं लगेगी। 

बहरहाल, बिहार की शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था किसी से छुपी नहीं है। अस्पताल का भवन है, तो डाॅक्टर और दवा नदारद। कोचिंग और प्राइवेट स्कूल की फीस का कोई पैमाना नहीं है। सरकारी स्कूल में नामांकित बच्चे प्राइवेट स्कूल जा रहे हैं। सरकारी लाभ तो उन्हें मिल जा रहा है पर सरकारी स्कूली शिक्षा से वे दूर होते जा रहे हैं। सरकार को भी स्कूल चलाने के लिए बड़ी रकम चुकानी पड़ रही है। बावजूद इसके किसानों, मजदूरों और गरीबों की जेब पर बोझ बढ़ता जा रहा है। सबसे पहले स्थानीय स्तर पर पंचायती राज विभाग की सक्रियता नितांत आवश्यक  है। साथ ही समाज के पढ़े-लिखे युवाओं को भी शिक्षा का अलख जगाने के लिए आगे आना चाहिए तभी सपनों का भारत बन सकेगा । 

 

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