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नई शिक्षा नीति: मूल्यांकन और चर्चा

Amrendra Kumar

Muzaffarpur, Bihar

किसी भी देश की अर्थ्यवस्था को मजबूत करने के लिए शिक्षा व्यवस्था ही सबसे मजबूत हथियार है। अलग-अलग अर्थव्यवस्था के लिए अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था का भी होना जरूरी है। अर्व्यवस्था का रूप वहां के संसाधनों पर ही निर्भर होता है यह जगजाहिर है। इसमें किसी के रोने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह भी सर्वविदित है कि अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं की नींव वहां के शासक वर्ग के बनाए गए नीति और प्रशासन पर निर्भर करता है.  

नई शिक्षा नीति का मूल्यांकन और चर्चा

 प्राचीन काल से इतने सारे तथ्य हमारे सामने है तो हमें इस बात पर लगातार विमर्श करना चाहिए कि किस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था कैसी होनी चाहिए। क्या अर्थव्यवस्था वहां के सभी लोगो के साथ लेकर नहीं चलने वाला होना चाहिए? क्या किसी खास क्षेत्र कि अर्थव्यवस्था वहां के संसाधनों के आधार पर नहीं होना चाहिए? चमक धमक देखकर अपने संसाधनों के सक्षमता के विपरीप दूसरे के अर्थव्यवस्था की कॉपी संसाधनों को धराशाई नहीं करेगी? कुल मिलाकर मतलब यह कि किसी खास क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे सुंदर रूप क्या हो? जब हम इस सवाल पर आते हैं तो हमें भारत के बारे में भी संसाधनों के आधार पर अर्थव्यवथा के लकीरों को खींचना चाहिए, उसके बारे में बारीकी से बात करनी चाहिए कि कैसे हम उस लकीर तक पहुंच सकते हैं?

जब हमलोग पढ़ रहे थे 90 के दशक में तो हमने पढ़ा कि भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित है। उसके बारे में बहुत सारी अच्छाइयां बताई गई, और वास्तव में थी भी, पर अचानक से आज यह बदली हुई दिखाई देती है। तो आज भी हमें अपने भारत देश के अर्थव्यवस्था की नीव को फिर से एग्जामिं करना चाहिए कि जो नीव रखी जा रही है या जो भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा दी जा रही है वह सही है या नहीं। और इसका परीक्षण यहां के उपलब्ध संसाधनों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। 

इसका परीक्षण यहां के संसाधनों से ही हो सकता है और संसाधनों में कुल मिलाकर यह कि यहां मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में है। इतना प्रचुर मात्रा कि हम बयां नहीं कर सकते। बस उसी तरह जैसे गोदामों में पड़े आधे अनाज जो कि जीवन के लिए उपयोगी है पर सही जगह नहीं पहुंचाई जा रही, फलातः सड़ रही है।

विश्व आर्थिक मंच के अनुसार महिलाओं के स्वास्थ्य और अस्तित्व और आर्थिक भागीदारी के मामले में व्यापक असमानता के बीच भारत 153 देशों में वैश्विक स्तर पर 112 वें स्थान पर पर पहुंच गया है। दैनिक भास्कर के रिपोर्ट के अनुसार 50% निचले तबके की औसतन वार्षिक आय केवल 50 हजार रु. के आसपास है। (इसके मुकाबले टॉप 1% की औसतन आय 42 लाख रु. है।) क्या 50 हजार में व्यक्ति इज्जत और आत्मसम्मान की जिंदगी जी सकता है?दैनिक भास्कर ने यहां ऊपर के 1% का 42 लाख और नीचे के 50% लोगों के औसत का 50 हजार रेखांकित किया।

मेरा अनुमान है कि अगर हम नीचे के 1 % और ऊपर के 1% के आय को देखें तो 4200 रुपया और 42 लाख हो शायद हो। हो सकता है कि नीचे के 1% वालों की आय का औसत ऋणात्मक हो। मुझे लगता है होगा ही। आंकड़े का अनुमान सटीक नहीं हो सकता, पर मै यहां सिर्फ असामनता को रेखांकित करना चाहता हूं जो कि अनुमान है कि यह विश्व में चरम पर होगा।

समाज के लिए एक ट्रेडिशनल और सटीक थ्योरी यह है कि अगर आप कितना भी अमीर क्यों न हो आपका पड़ोसी अगर गरीब है तो आप के पास पैसे तो होंगे लेकिन खुशी नहीं होगी। किसी भी समाज की सम्पन्नता का पैमाना में सबसे पहले खुशी, स्वतंत्रता, शिक्षा ही आती है। आज यह हम क्यों भुल रहे, पता नहीं। भारत जैसे विशाल देश के सबसे बड़े संसाधन मानव संसाधन का इतना बुरा हाल होना यहां के शिक्षा की स्थिति को दर्शाता है।

उपरोक्त स्थितियों का जब हम आकलन करेंगे तो निश्चित रूप से यह पूंजीवाद और असमानता को प्रतिबिंबित करेगा। भारत के परिपेक्ष में पूंजीवाद को परखना जरूरी है क्या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हमारे देश को शिक्षर तक ले जाने में सक्षम होगी? अगर होगी तो कैसे नहीं होगी तो क्यों? तो फिर कौन सी व्यवस्था सटीक होगी। इतनी बड़ी असमानता में संतुलन क्या पूंजीवाद घटक के सहारे हो सकेगा। मेरा मत है नहीं। तराजू के दो पलड़े होते हैं। एक तरफ चांदी हो और दूसरे तरफ सोना के भार से दबी पलड़ा। तो पलड़ा को बराबर करने के लिए सोना को उतारकर चांदी में मिला देना वेवकुफी नहीं तो और क्या होगी। और अगर नहीं मिलाना है तो सोना और चांदी के बीच के कड़ियों को खोजकर मजबूत करना होगा जो कि सरकार ही कर सकती है। हमारे देश का विकास इन सब व्यापक पहलुओं के अध्ययन कर उसके बेहतरी या समाधान के बिना नहीं हो सकता. 

चर्चा जारी है......

(इस आलेख में लेखक के अपने विचार है।  लेखक एक शिक्षक और कवि  हैं. )

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