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पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती महादेवी


मो. अनीसुर रहमान खान

बीजापुरकर्नाटक


हाल ही मेंकर्नाटक राज्य के बीजापुर शहर के पिछड़े इलाके अफजलपुर टिक्का की 
उबड़-खाबड़ और पथरीली सड़क परमेरी नज़र एक कमजोर महिला की ओर खिंचीजो लगभग सत्तर साल की एक बुजुर्ग थी. वह फटी पुरानी चप्पल पहन कर अपने पैरों को नुकीले और उभरे हुए पत्थरों से बचाने की कोशिश करते हुए चली जा रही थी. एक छड़ी के सहारे वह अपनी झुकी हुई कमर पर हरी घास लेकर कुछ कदम आगे जाती और फिर चिलचिलाती धूप में थके हुए पेड़ की छाया में बैठ जा रही थी. यह प्रक्रिया वह लगातार कर रही थी. छड़ी के सहारे वह थोड़ी दूर चलती और फिर थक कर बैठ जाती.


यह पूरा दृश्य देखकर मैं अपने आप को रोक नहीं पायामैंने अपने साथियों से कुछ समय लिया और उस बुज़ुर्ग महिला के पास पहुंच कर उनसे बात करने का प्रयास करने लगा. लेकिन हम दोनों के बीच भाषा आड़े आ गई. वह मुझे देखती रही और फिर अपनी मातृभाषा कन्नड़ में बोलने लगीं. जो मेरी समझ से बिल्कुल बाहर की बात थी. झिझक के बीच हम दोनों एक दूसरे को सांकेतिक भाषा से समझने और समझाने का प्रयास करने लगे. पास में खड़े मेरे स्थानीय सहयोगी मेरी इस असमंजस वाली स्थिति का पूरा लुत्फ उठा रहे थे. वह मुस्कुराते हुए हमारे करीब आया और बोला सर! क्या मैं अनुवादक के रूप में आपकी मदद कर सकता हूंउसकी बात से मेरे दिल की इच्छा पूरी हो गईमैंने उसे कृतज्ञ मुस्कान के साथ अनुमति दे दी.

पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती महादेवी


अपने उस स्थानीय अनुवादक के माध्यम से हमने धीरे धीरे से बात करना शुरू किया. उस महिला बुज़ुर्ग ने बताया कि उनका नाम महादेवी है. उन्होंने कभी भी स्कूल का मुंह नहीं देखा है. वह बचपन से ही खेतों में काम कर रही हैं. उन्होंने बताया कि शादी के कुछ सालों के बाद जब वह अपने पति के साथ खेतों में काम कर रही थी तो किसी बात पर क्रोधित होकर उनके पति ने कुदाल उठाकर उनकी पीठ पर ज़ोर से मार दिया. इस घटना के बाद से उनकी कमर हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई और वह झुक कर चलने लगीं. उन्होंने बताया कि उनकी एक बेटी है जो अपने ससुराल में वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही है. कुछ वर्ष पूर्व उनके पति का भी देहांत हो गयातब से वह बिल्कुल अकेले अपने एक छोटे से घर में रहती हैं और कड़ी मेहनत कर अपना भरण-पोषण करती हैं. महादेवी कहती हैं कि 'मुझे दया की भीख मांग कर खाना पसंद नहीं है. मैं प्रतिदिन सुबह जल्दी उठती हूंअपने लिए नाश्ता बनाती हूं और फिर खेतों में काम करने चली जाती हूं. वापस आकर रात का खाना खाती हूं और वह अपने भगवान का धन्यवाद कर के सो जाती हूं. पति के देहांत के बाद से यही मेरी दिनचर्या बन गई है. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि उन्हें अभी तक किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है.


बीजापुर के अफजलपुर स्थित "दर्सगाह कोचिंग एंड ओपन स्कूलिंग" में प्रशासनिक सेवा की तैयारी में व्यस्त युवा मोहम्मद शमशेर अली ने बताया कि महादेवी रोज सुबह अपने घर से करीब दो किलोमीटर दूर पैदल चलकर खेतों से हरी घास इकट्ठा करती हैं. एक तरफ जहां वह घास और खरपतवार निकाल कर फसल को ताकत देती हैं तो वहीं दूसरी तरफ मवेशियों के चारा के लिए इन घासों को बेचकर अपने पेट की आग को बुझाती हैं. उन्होंने बताया कि गांव में कभी भी किसी ने उन्हें किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा है. महंगाई के इस समय में भी वह अपनी जरूरतें 10 से 20 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से घास बेचकर ही पूरी करती हैं.


शिक्षाआर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में लोगों की बेहतरी के लिए काम करने सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सैयद मोहम्मद शाइक इकबाल चिश्ती इस संबंध में कहते हैं कि वर्तमान युग में महादेवी जैसे खुद्दार और स्वावलंबी लोग ही देश के वास्तविक पूंजी हैं. उनकी भावना की न केवल सराहना की जानी चाहिएबल्कि संबंधित विभागों के अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को तुरंत इस ओर ध्यान आकर्षित कर उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए. उन्होंने बताया कि उन्हें कम से कम दो प्रकार की योजनाओं का लाभ मिल सकता है. एक विधवा पेंशन है और दूसरी दिव्यांग पेंशन हैक्योंकि इस प्रकार की सरकारी योजनाओं का उद्देश्य ऐसे लोगों को ही सहारा देना और उन्हें लाभ पहुंचाना होता है.


हमारे देश में आज भी महादेवी जैसी हजारों गुमनाम और व्यक्तित्व के धनी लोग मौजूद हैं. जो उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर भी समाज पर बोझ बनने की बजाए मिसाल बनती हैं. ऐसे लोगों की कहानियों को ज़्यादा से ज़्यादा मीडिया की सुर्खियां बनाने की ज़रूरत हैताकि आने वाली पीढ़ियां इनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें. वह महिला सशक्तिकरण की एक बड़ी पहचान बन चुकी हैं. उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज की उन सभी धारणाओं को गलत साबित कर दिया है जो यह मानती है कि औरत पुरुष पर ही आश्रित रहकर जीवन व्यतीत कर सकती है. (चरखा फीचर)

पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती महादेवी





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