यात्रा रिपोर्ट
डॉ हरिनारायण ठाकुर
आज वैशाली की प्रसिद्ध राजनर्तकी और अपूर्व सुन्दरी ‘अम्बपाली’ के गाँव ‘अम्बारा’ गया, जिसे अब ‘अम्बारा तेजसिंह’ कहते हैं। अम्बपाली बुद्धकाल की एक ऐतिहासिक पात्र है और उसकी जन्मस्थली ‘अम्बारा’ गाँव भी। ‘अम्बपाली’ का वह ‘आम्रवन’ अब भी बचा हुआ है, जिसे अम्बपाली ने बुद्ध को दान दिया था। इस आम्रवन में बुद्ध ने अपने शिष्यों के साथ कई वर्षावास गुजारे थे। मुजफ्फरपुर-छपरा मुख्य मार्ग से सटा हुआ यह आम्रवन एक पुष्करणी (तालाब) से शुरू होता है। इस तालाब की स्थिति अच्छी नहीं है। फिर भी देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु जब यहाँ आते हैं, तो इसके जल से अभिषेक करते हैं। सम्भव है उस समय यह मार्ग दूसरी जगह से जाता हो और तालाब बगीचे के बीच में रहा हो। बीसियों एकड़ का यह आम्रवन अतिक्रमण का शिकार होकर अब मात्र दो-तीन एकड़ का ही रह गया है। इसी आम्रवन के सामने अम्बारा चौक पर सडक के उस पार एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है। लोग उसी को अम्बपाली का घर बताते हैं। वहाँ मुख्यद्वार पर बुद्ध की एक छोटी-सी मूर्ति लगी हुई है और उसके नीचे एक पुराने शिलापट्ट पर अँग्रेजी में लिखा हुआ है- ‘BIRTH PLACE OF AMRAPALI’.
लोग बताते है कि बहुत पहले वहाँ आम्रपाली की एक प्रतिमा भी स्थापित थी, जो अब नहीं है। अभी हाल-हाल तक स्कूल के सामने के मुख्य मार्ग पर बिहार सरकार का एक बड़ा-सा साईन बोर्ड लगा था, जिसके ऊपरी हिस्से के एक किनारे पर बुद्ध और दूसरे किनारे पर आम्रपाली की तस्वीरें बनी थी। उसके नीचे आम्रपाली और बुद्ध के ऐतिहासिक विवरण थे, जो अब भी है। किन्तु रख-रखाव के अभाव में वह बोर्ड जड़ से उखड़ गया और उसे स्कूल के अन्दर चहारदीवारी से सटाकर खड़ा कर दिया गया। वहाँ उग आये खर-पतवार और धूल-कीचड़ के बीच आज भी उसकी लिखावट पढ़ी जा सकती है, जिसमें आम्रपाली के जन्मस्थान का वर्णन है।
पुराने लोग बताते हैं कि यह स्थान स्तूपनुमा एक ऊँचा टीला और ईंट का खंडहर था, जो दूर-दूर तक फैला था। धीरे-धीरे लोग उसे काटते गये और उस लावारिश जमीन को हड़पते चले गये। 1960-65 के आस-पास जब यह सरकारी स्कूल बना, उस समय भी यह जमीन लगभग 30 डिसमिल थी। किन्तु आज यह दो-तीन डिसमिल ही रह गयी है। यहाँ से होकर एक लम्बी-चौड़ी सुरंग वैशाली गढ़ तक जाती थी, जिसके अवशेष अब भी जहाँ-तहाँ देखे जा सकते हैं। वैशाली गढ़ की दूरी यहाँ से लगभग 5-6 किमी है। अम्बपाली भीड़ से बचने के लिए इसी सुरंग से होकर वैशाली दरबार में जाती थी।
इससे दक्षिण-पूरब सुरंग के रास्ते पर अम्बारा नाम का एक और गाँव है, जिसे ‘अम्बारा चौबे’ कहते हैं। इस गाँव के लोगों का दावा है कि ‘आम्रपाली’ का जन्म इसी गाँव में हुआ था। प्रमाण में वे सुरंग के रास्ते का एक ऊँचा स्थान दिखाते हैं, जो कभी ऊँचा टीला था। ‘‘अम्बारा चौबे’ एक भूमिहार बहुल गाँव है, जबकि ‘अम्बारा तेजसिंह’ राजपूत बहुल। यहाँ ब्राह्मण और दलित-पिछ्ड़ी जातियों की संख्या भी कम नहीं है। पहले इस पंचायत का नाम आम्रपाली के नाम पर ‘आम्रपाली’ था, किन्तु वर्ष 2000-01 के परिसीमन में यह पंचायत दो भागों में बँट गया- ‘अम्बारा तेजसिंह’ और ‘मड़वा पाकड़’। पर पुराने दस्तावेज में इसका नाम ‘आम्रपाली’ ही है। इनमें आसपास के कई गाँव मिले हुए हैं, जिसमें एक प्रमुख गाँव है पास का ‘रेवा वसंतपुर’।
‘रेवा वसंतपुर’ के एक टोले में ‘डोम’ लोगों का घर है। इनके कुछ घर ‘मड़वा पाकड़’ में भी हैं। ‘अम्बारा तेजसिंह’ के सवर्ण खासकर राजपूत लोग ‘अम्बपाली’ के अस्तित्व के प्रति उतने उत्साहित और संवेदनशील नहीं हैं। उनका कहना है- ‘रही होगी कोई नीच जाति की नर्तकी।‘ किन्तु दलित-पिछड़े लोग उसे अपनी विरासत मानते हैं। अधिकांश लोग ‘अम्बपाली’ को ‘डोम’ जाति की कन्या बताते हैं। कुछ लोग जोर देकर बताते है कि ‘अम्बपाली’ डोम जाति की ही थी। हमलोग बाबा-दादा के ज़माने से सुनते आये हैं। ऐसे लोगों में पास के स्कूल के शिक्षक राणा कुणाल, चन्द्रिका प्रसाद, कपिलदेव राम, सहदेव राम, दिलीप साह आदि लोग हैं। इसके प्रमाण में वे लोग बताते हैं कि यहाँ के डोम लोग अब भी सुन्दर होते हैं। पुराने ज़माने में नाचना-गाना उनका पेशा रहा होगा, जो अब नहीं है। वे पास के गाँव ‘रेवा वसंतपुर’ के डोम 'सिक्की मल्ली' के परिवार के बारे में बताते हैं, जिसके खानदान-दर-खानदान गोरे और सुन्दर रहे हैं। आज भी उनके परिवार के सभी सदस्य वैसे ही गोरे और सुन्दर हैं।
‘अम्बपाली’ उसी के खानदान की थी। उस पंचायत की मुखिया बेबी कुमारी के पति सुरेश शर्मा, वयोवृद्ध अवकाश प्राप्त शिक्षक योगेन्द्र प्रसाद सिंह, अवधेश ठाकुर, कपिलदेव ठाकुर आदि लोग भी इस संभावना से इनकार नहीं करते। मैंने सिक्की मल्ली के घर पर जाकर देखा और सचमुच वैसा ही पाया। सिक्की मल्ली के बेटे-बेटी-पोती-पतोहू की तस्वीर नीचे दी जा रही है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है, पर बुद्ध द्वारा चांडाल कन्या प्रकृति को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर शिष्या बनाने का इतिहास है। प्रकृति पहले बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द पर अनुरक्त थी। किन्तु बुद्ध द्वारा मोह की निस्सारता समझाने पर वह बुद्ध की शिष्या बन गयी।
भारत में ऐसा पहली बार हुआ कि सैकड़ों स्त्रियों ने बौद्धधर्म अपनाकर संन्यास ग्रहण कर लिया। और यह सब बुद्ध के सामने हुआ। यह परम्परा बुद्ध के बाद भी जारी रही। इसके प्रमाण तुर्कों के आगमन के पूर्व बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक मिल जाते हैं, “क्योंकि भारत से बौद्धधर्म का लोप तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में हुआ.” (‘बुद्धचर्य्या’, राहुल सांकृत्यायन, भूमिका) बौद्धग्रन्थ ‘थेरीगाथा’ में केवल 73 प्रमुख स्त्रियों के ही नाम, वक्तव्य और उनकी कवितायें मिलती हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षित स्त्रियों को ‘थेरी’ कहते थे। इन प्रमुख थेरियों में वैशाली की राजनर्तकी या गणिका ‘अम्बपाली’ का भी नाम है।
भाग-2
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अम्बारा और आस-पास के गाँवों के निवासी अवधेश ठाकुर, दिलीप साह, राणा कुणाल आदि बताते हैं कि बहुत दिन पहले कुछ सरकारी सर्वेयर के साथ कुछ पर्यटक आये और अम्बपाली के जन्मस्थली उस स्कूल का निरीक्षण किया। उन्होंने अपने साथ लाये नक्शे को देखकर बताया कि यहाँ कुआँ था। जब उस जगह को उन लोगों ने खोदवाया, तो सचमुच वहाँ कुआँ निकला। बाद में धीरेधीरे लोगों ने उस कुआँ को भी ढँक दिया। आस-पास में अन्य कुएँ भी रहे होंगे। सरकार का पुरातत्त्व विभाग इस स्थान के प्रति उदासीन है।
‘अम्बपाली’ की ऐतिहासिक धरोहर की ख़बर लेनेवाला कोई नहीं है। यहाँ से निकलनेवाली सुरंग की सारी जमीने बिहार सरकार के नाम से है। ‘अम्बारा चौबे’ के पास चौर में कुछ ऊँची जमीन एक पूर्व सैनिक को दी हुई है। उसमें आम-लीची का एक नया बगीचा है और खेती भी होती है। उसके पास खुदे हुए कुछ तालाबनुमा गड्ढे हैं। बुजुर्ग लोग बताते हैं कि यही सुरंग का मार्ग है। पहले इसमें से ईंट के छोटे-बड़े टुकड़े निकलते थे, जब हमलोग बच्चे थे। यहाँ खेलने आते थे। वहाँ से दूर-दूर तक ऊँची जमीन की एक लम्बी श्रृंखला है। लोग बताते हैं कि यही सुरंग मार्ग है। यदि पुरातात्त्विक सर्वेक्षण और खुदाई हो, तो यहाँ से बहुत से इतिहास का एक बड़ा अध्याय खुल सकता है। किन्तु सरकार इसके प्रति उदासीन है।
अम्बपाली का ‘सप्तभूमि प्रासाद’ और आम्रवन: अम्बपाली का ‘आम्रवन’ कहाँ था? इसका ठीक-ठीक पता करना आज मुश्किल है। अम्बपाली के उस उद्यान में गौतम बुद्ध राजगृह से आये थे। राजगृह से वैशाली उत्तर-पश्चिम दिशा में है। बीच में गंगा नदी है। इसीलिए गंगा नदी पार करने के बाद वैशाली के किसी दक्षिणी उद्यान में ही आये होंगे, जो अम्बपाली का था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार “उस समय वैशाली समृद्धिशाली मनुष्यों से घिरी हुई अन्न-पान से सम्पन्न थी। उसमें 7,777 प्रासाद, 7,777 कूटागार, 7,777 आराम और 7,777 पुष्करिणियाँ थीं। गणिका अम्बपाली अभिरूप दर्शनीय, प्रासादिक, परम रूपवती, नाच, गीत और वाद्य में चतुर थी।“ (जीवक सुत्त, समय- ई.पू. 509, पालि ग्रन्थ ‘त्रिपिटक’ का अनुवाद, ‘बुद्धचर्य्या’, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ- 278)
निश्चय ही इन 7,777 प्रासाद और पुष्करिणियों में से एक-एक अम्बपाली की रही होगी। अम्बपाली के प्रासाद (महल) का नाम ‘सप्तभूमि प्रासाद’ था, जो सम्भव है वैशाली राज प्रासाद के आस-पास ही हो और वहीं से दक्षिण ‘आम्रपाली उद्यान’ भी हो। किन्तु वैशाली के आस-पास दक्षिण में अभी इस तरह के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। ‘अम्बारा’ भी वैशाली के पास ही है, किन्तु यह वैशाली से उत्तर-पश्चिम दिशा में है। इसीलिए दक्षिण-पूर्व में ‘अम्बपाली’ के महल और उद्यान की ख़ोज की जानी चाहिए। साथ ही उस सुरंग की खुदाई भी होनी चाहिए, जो अम्बारा से वैशाली जाती थी।
किन्तु जब पूरे वैशाली गढ़ और उसके आस- पास की खुदाई ही अभी बाकी है, तो अम्बपाली की ख़ोज कौन करे? इस सम्बन्ध में बिहार सरकार को ध्यान देना चाहिए, अन्यथा बिहार की यह प्राचीन धरोहर कालान्तर में लुप्त हो जायेगी। जब तक कोई दूसरा साक्ष्य नहीं मिल जाता, तब तक अम्बारा स्थित जन्मस्थली को ही ‘सप्तभूमि प्रासाद’ और उद्यान को ‘अम्बपाली’ का आम्रवन माना जाता रहेगा। क्योंकि इसका कोई दूसरा ऐतिहासिक प्रमाण और भूगोल उपलब्ध नहीं है।
अम्बपाली की ख़ोज: अम्बारा के रेवा वसंतपुर पट्टी के प्रसिद्ध डोम ‘सिक्की मल्ली’ तो अब नहीं हैं, पर उनके बेटे पप्पू मल्ली और रामू मल्ली बताते हैं - “‘अम्बपाली’ हमारे खानदान की थी, हमलोग नहीं जानते, किन्तु हमारे दादे, परदादे, पिताजी, माँ और हम भाई-बहनों की सुन्दरता देखकर लोग कहते थे कि ‘अम्बपाली’ तुम्हारे खानदान की ही थी। ऐसा पिताजी कहते थे। लोग इसे मजाक में लेते थे। कोई सरकरी हाकिम या आप जैसे कोई पढ़े-लिखे लोग इस सम्बन्ध में ख़ोज-ख़बर लेने नहीं आये। यह बात सच है कि हमारे खानदान के सभी लोग गोरे और सुन्दर थे। हम छ: भाई और दो बहनें हैं। सबकी शादी हो गयी। सभी बाल-बच्चेदार हैं। हमलोग अपनी पाँच पीढ़ियों के नाम जानते हैं। हमारे पिता सिक्की मल्ली तीन भाई थे- आसाम मल्ली, सिक्की मल्ली और कन्हाई मल्ली। उनके पिता और हमारे दादा का नाम जेठू मल्ली था, जो अपने पिता और हमारे परदादा चुल्हाई मल्ली के एक ही पुत्र थे। चुल्हाई मल्ली के पिता का नाम नथुनी मल्ली था। वे भी अपने पिता के एक ही पुत्र थे। लेकिन हमारे पिता और दादा-परदादाओं की बहनें और पुत्रियाँ थीं। हमारे पाँचों पीढ़ियों के सभी लोग गोरे और सुन्दर थे। वे लोग नाच-गाना करते थे कि नहीं, हम नहीं जानते। आपलोग पहली बार गम्भीरतापूर्वक ख़ोज-ख़बर लेने आये हैं। अगर यह बात सही हो गयी कि अम्बपाली हमारे खानदान की थी, तो हमलोग ‘अम्बपाली पोखर और उसकी जमीन पर धावा बोल देंगे।”
जैन-बौद्ध काल के साहित्य और इतिहास से पता चलता है कि उस काल में दास-दासी और गणिका परम्परा समाज द्वारा स्वीकृत परम्परा थी। गणिकाएँ रूप-सौन्दर्य और धन-ऐश्वर्य की मालकिन अवश्य होती थीं, किन्तु बड़े घराने की कन्याएँ गणिका नहीं बनती थीं। जब बौद्ध धर्म में स्त्रियों का प्रवेश हो गया, तो बौद्ध और जैन दोनों धर्मों में स्त्रियाँ दीक्षित होकर संन्यासिनी बनने लगीं। प्रौढ़ संन्यासिनियों ने तो जीवन- भर संघ के नियम और ब्रह्मचर्य का पालन किया, किन्तु युवा संन्यासी और संन्यासिनियों में प्राय: ब्रह्मचर्य व्रत का पालन ठीक से नहीं हुआ। उनके यौन-सम्बन्ध के किस्से जैन और बौद्ध साहित्य में मिलते हैं। कोई-कोई भिक्षुक और भिक्षुणियाँ फिर से गृहस्थ बन जाती थीं।
किन्तु गणिकाओं के शुल्क और नैतिक मूल्य निर्धारित थे। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार – “अम्बपाली चाहनेवाले मनुष्यों के पचास कर्षापण (स्वर्णमुद्रा) पर रात-भर के लिए जाया करती थी। उससे वैशाली और भी प्रसन्न और शोभित थी। जब राजगृह के नैगम (दूत) ने उसे देखा, तो मगध नरेश बिम्बिसार से बोला- “देव ! वैशाली गणिका से शोभित है। अच्छा हो देव कि हम भी वैसी गणिका खड़ी करें। तब वैसी ही रूपवती कुमारी सालवती को चुना गया। सालवती गणिका थोड़े ही काल में नाच, गीत और वाद्य में चतुर हो गयी। वह चाहनेवाले मनुष्यों के सौ कर्षापण (स्वर्णमुद्रा) पर रात-भर के लिए जाया करती थी।” (जीवक सुत्त, समय- ई.पू. 509, पालि ग्रन्थ ‘त्रिपिटक’ का अनुवाद, ‘बुद्धचर्य्या’, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ- 278)
......क्रमश: जारी
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शोधपरक रपट
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