जल, ज़मीन और मानव के लिए घातक होती ज़हरीली हरियाली
हरीश शिवनानीसमाचार
मानसून ने देश मे दस्तक दे दी है और पूरे भारत में पर्यावरण संरक्षण और हरियाली के नाम पर पौधरोपण का दौर भी हो गए हैं। हर वर्ष की तरह ‘ग्रीन इंडिया’, ‘ग्रीन फलां स्टेट’ के नाम पर निश्चित रूप से सैकड़ों करोड़ रुपए भी खर्च होंगे। हमारे देश में एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि पहले लापरवाही से पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन करने और बाद में अति उत्साह में पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पर ऐसी योजनाएं, परियोजनाएं बना दी जाती हैं जो कुछ समय बाद घातक साबित होने लगती हैं।
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पर्यावरण के बिलकुल अनुकूल नहीं : ऐसे ही देश में वानिकी के नाम पर ऐसे विदेशी पेड़-पौधे रोपे दिए गए हैं जो भारत की जलवायु और यहाँ के पर्यावरण के बिलकुल अनुकूल नहीं हैं। भारत मे अब विदेशी पेड़-पौधे घातक साबित होने लगे हैं। पिछले कुछ बरसों में अनेक राज्यों में अनियोजित तरीके से कॉनोकार्पस के हज़ारों पेड़-पौधे लगा दिए गए हैं, जो हर तरह से जल, ज़मीन, जीव-जंतुओं के अलावा मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर हो गए हैं। राजधानी दिल्ली के अलावा अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट, राजकोट में राम वन और में इस वडोदरा में 'मिशन मिलियन ट्रीज़' के तहत वृक्षारोपण अभियान में 24,000 कोनोकार्पस पेड़ लगाए गए।
कोनोकार्पस एक मैंग्रोव झाड़ी है : भोपाल की खूबसूरत श्यामला हिल्स पर बने स्मार्ट सिटी पार्क के अलावा राजस्थान के डूंगरपुर और राजसमंद, जोधपुर, तमिलनाडु के चैनेई, कोयंबटूर, आंध्रप्रदेश के काकीनाडा सहित अनेक शहरों में करोड़ों रुपए खर्च करके दक्षिण अफ़्रीका की इस प्रजाति के पेड़ लगाए गए। कोनोकार्पस एक मैंग्रोव झाड़ी है जो उपोष्णकटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तटरेखाओं और नदी तलहटी में पाई जाती है। कोनोकार्पस के पेड़ गहरे हरे रंग की चमकदार पत्तियों वाली एक सदाबहार वनस्पति प्रजाति है।
दरअसल, कुछ वर्षों से इस पौधे को सरकारों के साथ-साथ निजी कंपनियों द्वारा भी पसंद किया जा रहा है, क्योंकि यह तुरंत बढ़ता है, उच्च तापमान को सहन कर सकता है। यह एक ऐसा पौधा है जो भारत की शुष्क और तेज गर्मी को भी आसानी से झेल सकता है। इसे बढ़ने के लिए ताजे पानी की भी आवश्यकता नहीं होती है और यह फूल भी देता है। इसकी चमकदार हरे रंग की पत्तियां इसकी खूबसूरती है। इससे अच्छी छांव मिलती है।
शहरी डिजाइनरों का पसंदीदा : कोनोकार्पस को चुने जाने का एक अन्य कारण यह भी रहा कि यह वृक्ष नालियों और सीवरेज के पानी का उपयोग करके विकसित हो सकता है। इसकी देखभाल करना और छांटना आसान है। यह कुछ ही महीनों में 20 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ जाता है और कई तनों के माध्यम से फैल जाता है। रखरखाव भी आसान है तो इसकी लागत भी काफी कम है, जिससे यह बागवानी करने वालों और शहरी डिजाइनरों का पसंदीदा बन गया है। बावजूद इतनी विशेषताओं के, भारत के अनेक राज्यों में इस पर प्रतिबंध लगाने का तैयारी है। हजारों कोनोकार्पस पेड़ लगाने के बाद गुजरात, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना में अब उन्हें काटा जा रहा है, क्योंकि ये पेड़ पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर हानिकारक साबित हुए हैं। दरअसल इस प्रजाति के लाभ की बजाए नुकसान बहुत ज़्यादा हैं। यह पानी की बहुत अधिक खपत करने वाली आक्रामक प्रजाति है।
मीठे पानी की प्रणालियों को नुकसान पहुंचता है: यह पौधा बहुत अधिक पानी पीता है और भूजल स्तर को प्रभावित कर सकता है। इसके परिणामस्वरूप भूजल भंडार पानी की कमी हो जाती है। इसकी जड़ें मिट्टी के नीचे गहराई तक जाती हैं जिससे जल निकासी नेटवर्क और मीठे पानी की प्रणालियों को नुकसान पहुंचता है। इसकी जड़ें जल निकासी पाइपों को भी अवरुद्ध कर देती हैं। यह पौधा सर्दियों में खूब फलता है और वर्ष में दो बार परागण करता है। इसके परागकण मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे आसपास रहने वाली जनसंख्या में खांसी, जुकाम, अस्थमा, एलर्जी और सांस संबंधी संबंधी बीमारियां बढ़ने लगती हैं। इस पौधे पर किसी तरह का कोई फल नहीं लगता। सबसे बड़ी बात है कि ये चौबीसों घंटे कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं जो मानव सहित जीव-जंतुओं और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक है।
पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक : पर्यावरणविदों की राय में यह पौधा सौंदर्यीकरण के अलावा पारिस्थितिकी तंत्र के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं है। इसमें कोई पक्षी घोंसला नहीं बनाते हैं। पशु भी इसे नहीं खा पाते। यह किसी भी तरह से जैव विविधता को समृद्ध करने में योगदान नहीं देता है। इस लिहाज से यह पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। इसलिए इसके विरोध में स्वर मुखर होने लगे हैं। इसी वज़ह से कोनोकार्पस पौधा प्रकृति के लिए श्राप माना है।
तेजी से बढ़ते ये पेड़ सीसीटीवी कैमरों, बिलबोर्ड, साइनेज, होर्डिंग्स, स्ट्रीट लाइट और बिजली के तारों को बाधित कर रहे थे। इस वजह से उन्हें बार-बार काटने की जरूरत पड़ती है, इस कारण इस पर बहुत अधिक लागत आती है। इससे होने वाले विनाशकारी प्रभावों को देखते हुए सबसे पहले तेलंगाना और फिर गुजरात और आंध्रप्रदेश ने कोनोकार्पस पौधे पर प्रतिबंध लगा दिया है।
नगर परिषद ने ऐसे 5000 पौधों को कटवा दिया : कॉनोकार्पस के दुष्परिणामों को देख कर कई शहरों में इसे अब काटा जा रहा है। वर्ष 2023 में वडोदरा में 35,000 कोनोकार्पस पेड़ लगाए गए थे। अब उनको उन सभी को काटा जा रहा है। आंध्र प्रदेश में शहरी निकायों द्वारा गैर-वनीय उद्देश्यों और भूनिर्माण के लिए इसका उपयोग किया जा रहा था लेकिन इसके दुष्परिणाम सामने आते ही काकीनाडा स्मार्ट सिटी में लगाए गए 4,602 कोनोकार्पस पेड़ों को काटने का निर्णय किया गया। राजस्थान के डूंगरपुर में नगर परिषद ने ऐसे 5000 पौधों को कटवा दिया, जिन्हें उसने खुद लगवाया था। राजसमंद में भी ऐसा किया गया।
कॉनोकार्पस के पौधे उखाड़कर अब देशी पौधे लगाए : तमिलनाडु सरकार ने शहरी भूदृश्य और सार्वजनिक स्थानों कोनोकार्पस के रोपण और बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय लिया। भारत के सबसे ऊंचे स्थल पर बने जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग की तलहटी को हरा-भरा बनाने में बरसों से जुटे पर्यावरणविद् प्रसन्नपुरी गोस्वमी ने पहले लगाए कॉनोकार्पस के पौधे उखाड़कर अब देशी पौधे लगाए हैं। पशु-पक्षी विशेषज्ञ शरद पुरोहित भी इस बारे में जागरुकता फैलाने में जुटे हैं। कोनोकार्पस पहली या एकमात्र विदेशी आक्रामक प्रजाति नहीं है जिसका शहरी वानिकी और भूनिर्माण के लिए बागवानी विशेषज्ञों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। बरसों के अनुसंधान के बाद पाया गया है कि कई प्रजातियाँ जो पहले हरियाली या सजावटी परियोजनाओं के लिए भारत में लाई गई थीं, धीरे-धीरे आक्रामक हो गईं। इन प्रजातियों की सूची लंबी है।
इनमेंयूकेलिप्टस,प्रोसोपिस,जूलीफ्लोरा,अकेशिया मैंगियम और लैंटाना कैमरा शामिल हैं। सबसे व्यापक रूप से पाया जाने वाला प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा है जिसे हिंदी में विलायती कीकर (विदेशी बबूल) के नाम से जाना जाता है। 2021 में, दिल्ली के सेंट्रल रिज में प्रोसोपोइस जूलीफ्लोरा के 423 हेक्टेयर क्षेत्र को साफ करने की परियोजना को मंजूरी दी गई थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि “पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से, विदेशी प्रजातियों से बचना चाहिए। क्योंकि विदेशी पौधे 20-30 साल बाद बहुत अलग व्यवहार करते हैं। वे अनुकूलन और परिवर्तन करते हैं। एक गैर-आक्रामक प्रजाति स्थानीय जलवायु और मिट्टी के अनुकूल होने के कारण अत्यधिक आक्रामक प्रजातियों में विकसित हो सकती है। गिरे हुए बीज कुछ वर्षों में विकसित होकर उगना शुरू कर सकते हैं। इसलिए विदेशी प्रजातियों के साथ कुछ अंतर्निहित जोखिम जुड़े हुए हैं। समय रहते भारत में इन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो आने वाले समय में पर्यावरण से जुड़ीं अनेक समस्याएं आ सकती हैं।आज यह कोनोकार्पस है, कल यह ल्यूकेना हो सकता है और परसों मैंगियम हो सकता है। जैसा कि घातक वृद्धि के मामले में होता है, जब तक प्रतिकूल प्रभाव जनता को दिखाई देते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
(स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार)
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