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स्कूल से पहले ससुराल चली जाती हैं लड़कियां

नजमा बानो

लूणकरणसर, राजस्थान

स्कूल से पहले ससुराल चली जाती हैं लड़कियांहमारे देश में कुछ ऐसी सामाजिक बुराईयां आज भी मौजूद हैं जिनके खिलाफ सख्त कानून तो बने हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद वह जारी है. इनमें कम उम्र में लड़कियों की शादी प्रमुख है. भारत में प्रत्येक वर्ष 18 साल से कम उम्र की करीब 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है, जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बाल वधुओं की संख्या है, जो विश्व की कुल संख्या का तीसरा भाग है. 15 से 19 साल के उम्र की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां शादीशुदा हैं. हालांकि साल 2005-06 से 2015-16 के दौरान 18 साल से पहले शादी करने वाली लड़कियों की संख्या 47 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत हो गई है, परंतु यह अभी भी अधिक है. विशेषकर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रतिशत अधिक है.

राज्य स्तर पर बात करें तो राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र इस बुराई से सबसे अधिक प्रभावित हैं। यहां के कई गांवों में लड़कियों की जल्दी शादी हो जाना आम बात है। हालांकि हाल के दशक में यह प्रथा घटने के संकेत दिखे हैं, पर जमीन पर मौजूद तस्वीर मिश्रित है। कुछ जगहों पर बदलाव तेज़ है, तो कई जगहों पर ये बुराई अभी भी जिंदा है। राष्ट्रीय सर्वेक्षणों के आँकड़ों से साफ होता है कि 2005–06 से लेकर 2019–21 तक इसमें स्पष्ट कमी आई है। राजस्थान में 20–24 आयु की महिलाओं में जो लोग 18 साल से पहले शादी कर चुकी थीं, उनकी दर 2005–06 में बहुत ऊँची थी और 2015–16 में यह 35.4% तक आ गई; फिर 2019–21 में और घटकर लगभग 25.4% दर्ज हुई। यानी एक दशक में गिरावट तो हुई है, पर मामला अभी भी व्यापक है।

इन संख्याओं के पीछे हर एक आंकड़ा किसी परिवार की सुबह और किसी छात्रा की किताबों में छूटा हुआ अध्याय बनकर बैठा है। 2005 के बाद से जो गिरावट आई है, वह अक्सर स्कूलों में बढ़ती दाख़िलों, स्थानीय जागरूकता अभियानों और कुछ इलाकों में जीवन शैली के बदलने की वजह से है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें भी बताती हैं कि पूरे देश में बाल विवाह घट रहा है, पर कुछ राज्यों और उनके ग्रामीण हिस्सों में यह अभी भी बड़े पैमाने पर मौजूद है। राजस्थान की बदलती दर राष्ट्रीय औसत से भिन्न पैटर्न दिखाती है। कुछ जगहों पर तीक्ष्ण गिरावट हुई है, और कुछ जगहों पर धीमी लेकिन लगातार कमी।

इसी समय, यह भी ठीक है कि हाल के सालों में कुछ रिपोर्टों ने और ताज़ा स्थानीय पहलों का ज़िक्र किया है, जिनसे कुछ जिलों में हालिया वर्षों (2022–24) के बीच रोकथाम के अस्थायी या स्थायी नतीजे सामने आए हैं। पर यह जरूरी है कि इन छोटे-छोटे विजयों को व्यापक और गहरे स्तर पर मापा जाए। कुछ मीडिया रिपोर्टों और क्षेत्रीय सर्वेक्षणों ने तेज़ गिरावट के प्रमाण दिए हैं; फिर भी राष्ट्रीय सर्वेक्षणों का बड़ा फ्रेम (NFHS जैसी) समय-समय पर तुलनात्मक संकेत देता है।

लड़कियों की पढ़ाई पर इसका असर बहुत सीधा और गहरा होता है। जल्दी शादी से स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ती है। 12वीं तक पहुँचने की संभावना कम हो जाती है और कई बार लड़कियाँ अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर घरेलू जिम्मेदारियों या मां बनने की चुनौती में फँस जाती हैं। इससे उनकी आगे की शिक्षा, करियर के विकल्प और आत्मनिर्भर बनने की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं। नेशनल सर्वेक्षणों ने यह भी दिखाया है कि जिन इलाकों में बाल विवाह की दर अधिक है, वहाँ साक्षरता और शैक्षिक उपलब्धियाँ तुलनात्मक रूप से कम होती हैं।

स्वास्थ्य के स्तर पर भी इसका विनाशकारी असर देखने को मिलता है। किशोरावस्था में गर्भधारण से मां और शिशु दोनों के जोखिम बढ़ जाते हैं। प्रसव संबंधी जटिलताएं, न्यूट्रिशनल कमी, और उच्च बाल-मृत्यु दर जैसी समस्याएँ अधिक देखने को मिलती हैं। राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि किशोर मातृत्व की दर और किशोरों में गर्भधारण पर प्रभाव उस समुदाय की शादी की प्रथाओं से जुड़ा होता है। जहाँ शुरुआती शादी सामान्य है वहाँ ये स्वास्थ्य संकेतक नकारात्मक रहते हैं।

समग्र विकास यानी किसी लड़की का शैक्षिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकास भी शादी की जल्दी से प्रभावित होता है। जिस उम्र में कोई युवा अपनी पहचान बना रही होती है, उसी समय अगर जिम्मेदारियों और रिश्तों का एक भारी बोझ सर पर आ जाए तो उसकी क्षमता, आत्मविश्वास और विकल्प सीमित हो जाते हैं। यह केवल व्यक्तिगत कहानी नहीं, बल्कि समुदाय की समृद्धि और अगली पीढ़ी के अवसरों को भी प्रभावित करता है। शिक्षा और स्वस्थ जीवन का चक्र धीमा पड़ जाता है, जिसके दूरगामी आर्थिक और सामाजिक प्रभाव रहते हैं।

फिर भी, बदलाव के कुछ संकेत मौजूद हैं। कुछ गाँवों में लड़कियों की स्कूल निरंतरता बढ़ रही है, स्थानीय सामाजिक समूहों और संस्थाओं के समर्थन से जो परिवार अपने बच्चों की पढ़ाई जारी रखते हैं वे धीरे-धीरे एक नया मानक बना रहे हैं। इन सफलताओं की कहानियाँ बताती हैं कि सही हस्तक्षेप जैसे स्कूलों तक सुरक्षित पहुँच, किशोर स्वास्थ्य सेवाएँ, और समुदाय-आधारित जागरूकता वास्तविक परिणाम ला सकते हैं। पर सफलता के लिए सतत प्रयास, निगरानी और युवाओं को विकल्प देने वाली नीतियों का मेल जरूरी है।

यह लेख किसी व्यक्ति या संस्था को दोष देने के उद्देश्य से नहीं है। उद्देश्य यह समझना और बताना है कि क्या बदल रहा है और क्यों। आँकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में सुधार हुआ है, पर पुरानी जड़ें अभी भी कई जगहों पर टिके हुए हैं। असल काम यही है। स्थायी तौर पर उन बदलावों को फैलाना जो लड़कियों को उनके स्कूल, उनका स्वास्थ्य और भविष्य के विकल्प वापस दिला सकें। छोटे-छोटे कदम, सुरक्षित स्कूल वातावरण, समाज की सकारात्मक भूमिका, युवाओं के लिए करियर जानकारी आदि मिलकर उस बड़े बदलाव का हिस्सा बनते हैं जो हर गाँव की अगली सुबह को बदल सके।

दरअसल, राजस्थान के ग्रामीण इलाकों की कहानी अभी पूरी नहीं हुई। आँकड़े उम्मीद देते हैं और क्षेत्रीय सफलताएँ संकेत, पर असली जीत तब होगी जब हर लड़की के पास पढ़ाई, स्वास्थ्य और फैसलों का बराबर मौका होगा और जब गाँवों की नई पीढ़ियाँ उन विकल्पों को अपनाएँगी जिनसे वे अपने जीवन की दिशा खुद चुन सकें। बाल विवाह उनसे यही विकल्प छीन लेता है। जिसे अब समाप्त करने का समय आ गया है।
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)



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