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घूंघट में रह कर स्वावलंबी बनती ग्रामीण महिलाएं

राजेश निर्मल

सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश

इंसान और पशु में बस इतना ही फ़र्क है कि पशु अपना सारा जीवन खाने और सोने में गुज़ार देता है, लेकिन इंसान की शिक्षा उसे इतना सक्षम बनाती है कि वह खुद के साथ साथ अपना और अपने समाज को बढ़ाने में मदद करता है। बाबा साहब अम्बेडर हमेशा कहा करते थे कि "यदि किसी समाज की तरक्की का अंदाज़ा लगाना है तो पहले देखो कि उस समाज में महिलाओ की स्थिति क्या है?" हमारी व्यवस्था और सरकारी तंत्र आज़ादी के बाद से ही हाशिए पर खड़ी महिलाओं को आगे लाने की कोशिशों में लगा हुआ है। इसके लिए गांव से लेकर महानगर स्तर तक महिला सशक्तिकरण से जुड़ी अनेकों योजनाएं चलाई जा रही हैं। इनमें जहां उनकी शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है, वहीं उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के भी प्रयास किये जा रहे हैं। महिला आरक्षण ने इस बात को और बल दिया। इसी का सकारात्मक परिणाम है कि आज के समय में महिलाएं हर छोटे बड़े स्तर पर काम करती दिखाई दे रही हैं। इतना ही नहीं सामाजिक विषयों से जुड़े फ़ैसले लेने में भी रचनात्मक भूमिका अदा करने लगी हैं। कई सामाजिक संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व उल्लेखनीय है। 

 इसी क्रम में महिलाओ के प्रतिनिधित्व की तलाश और उनके निर्णय लेने की क्षमता का जायज़ा लेने के लिए हम उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िला स्थित ग्रामीण इलाकों में मिट्टी की टूटी और धूल भरी सड़को से गुज़रते हुए गांव डेहिरियांवा के हलियापुर क्षेत्र पहुंचे। जहां एनआरएलएम (राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन) योजना में काम करते हुए दो महिलाएं, 30 वर्षीय रक्षा मौया और 32 साल की रेवती से मुलाकात हुई। यह दोनों महिलाएं एनआरएलएम के तहत स्वयं सहायता समूह चलाती हैं। रक्षा इस समूह में प्रोफेशनल रिसर्च पर्सन के तौर पर काम करती हैं। उनके पति दिल्ली में नौकरी करते है और वह अपने एक बच्चे और सास ससुर के साथ रह रही हैं। रक्षा बताती हैं कि समाज में अब धीरे धीरे बहुत बदलाव आ रहा है। लोग पहले की तरह महिलाओ को घर में रखकर सिर्फ़ गृहिणी की तरह नही देखते हैं बल्कि चाहते हैं कि वह भी आत्मनिर्भर बने। हालांकि शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में यह सोंच अब भी बहुत कम है। रक्षा बताती हैं कि उनके परिवार में भी पहले उनके काम करने पर बहुत एतराज़ था, लेकिन पति की सहमति से उन्होंने अपने सास ससुर को भरोसे में लिया। 

आज रक्षा पति की गैर मौजूदगी में घर से लेकर बाहर तक के सारे फ़ैसले न केवल खुद लेती हैं बल्कि बड़ी कुशलता से सारी ज़िम्मेदारियों को भी संभालती हैं। वह बताती हैं कि उनके समूह से निकली बहुत सी महिलाएं आज दूसरे इलाकों में अपने समूह चला रही हैं। इतना ही नहीं वह समूह से जुड़ी महिलाओं को लोन दिला कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने में सहायता भी कर रही हैं। रक्षा के बगल में बैठी रेवती बताती हैं कि वह दलित समाज से है। जहां आज भी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में दलित समाज की महिलाओं को हाई स्कूल और इंटरमीडियट तक की पढ़ाई करने के लिए भी बड़ी मश्क्कत करनी पड़ती है। कभी परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के कारण तो कभी किसी अन्य कारणों से पढ़ाई छूट जाती है। लेकिन अब जब सरकार महिला शिक्षा पर ज़ोर दे रही है तो लड़कियां भी पढ़ रही हैं और पढ़ाई के साथ साथ अपनी ज़िंदगी के सारे छोटे बड़े निर्णय बड़ी मज़बूती के साथ ले रही हैं। 

रक्षा और रेवती से बात करने पर पता चला कि उनके समूह के द्वारा हलियापुर इलाके के पास ही सरकार की तरफ से एक गौशाला में कंडे (गोबर) से ईंधन बनाने की मशीन लगायी गई है, जिससे समूह से जुड़ी महिलाओं को एक नए प्रकार का रोज़गार मिला है। हमने गौशाला में काम कर रही उन महिलाओं से भी बात की, कि वह कैसे अपने निर्णय लेने की भूमिका को देखती हैं? चेहरे पर मास्क, हाथों में ग्लब्ज़ और ढेर सारे गोबर के कंडो के बीच वहां छह महिलाएं अपने काम में मग्न थीं। अपने काम को बखूबी अंजाम देते हुए 35 वर्षीय निशा बताती हैं कि उन्हें यहां काम करते हुए एक महीना हो गया है। उनका मानना है कि शिक्षा ही हर ताले की चाबी है। जो नहीं पढ़ती हैं वही हमेशा दूसरों के सहारे रहती हैं। इसीलिए महिलाओं के निर्णय और भूमिका में उनका शिक्षित होना बहुत ही ज़रुरी है। एक अन्य महिला विद्यावती बताती हैं कि "पहले जब हम घर में रहते थे तो सिर्फ़ घर के काम करते थे। हमसे कुछ ज्यादा राय या सलाह नही ली जाती थी लेकिन जब से हम समूह से जुड़कर काम करने लगे हैं, हमें घर में भी अब गंभीरता से लिया जाता है और हमारी बातों को तरजीह दी जाती है।

ग्रामीण इलाकों में महिलाओ की शिक्षा को एक रुढिवादी और पारंपरिक ढंग से देखा जाता है। जिसकी पड़ताल में हमने जाना कि स्कूल में पढ़ाये जाने वाले कुछ वैकल्पिक विषय जैसे कि कृषि विज्ञान और गृह विज्ञान लिंग के आधार पर बटें हुए विषय है। जिसका मूल कारण हमारे समाज की रुढ़िवादी परंपराओं की जड़ में है। गृह विज्ञान जैसा विषय इसीलिए चलाया गया है ताकि लड़कियों को घर में खाने पकाने और सिलाई कढ़ाई जैसे घरेलू कामों की ट्रेनिंग दी जा सके। लोग इस बात को सही भी मानते हैं। उनका तर्क होता है कि "पढ़ लिख कर भी एक महिला को घर ही संभालना है, इसीलिए गृह विज्ञान बहुत ज़रुरी है।" इस मुद्दे पर स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियां क्या सोचती हैं, इस सिलसिले में हमने पिठिला रोड स्थित राष्ट्रीय विद्या पीठ की छात्राओं से बात की। जब हमने भविष्य के निर्णय पर सवाल किया तो लगभग सभी लड़कियों का यही जवाब था कि परिवार में हमारे लिए निर्णय लेने का अधिकार माता पिता का है और हमें उनसे पूछ कर ही सब काम करने चाहिये। फिर सवाल दोहराए जाने पर या सवाल की बारीकी पर बात करने पर कुछ लड़कियों ने अपनी राय में थोड़ा सा बदलाव किया और बोली कि माता पिता को हमारे लिए फ़ैसला लेने का अधिकार है, लेकिन वो अपने उस अधिकार में हमारी सलाह को भी शामिल करें तो हमारे भविष्य के लिए बेहतर होगा। गृह और कृषि विज्ञान के मुद्दे पर एक छात्रा सरोज अग्रहरि (उम्र 15) का तर्क था कि लिंग के हिसाब से विषयों का चयन उचित नहीं है। गृह विज्ञान सिर्फ़ लड़कियों के पढ़ने तक सीमित नहीं होना चाहिए। लेकिन एक महिला को बाहर के साथ साथ घर के काम भी आना बहुत ज़रुरी है।" 

सरोज की बात पर सहमति जताते हुए एक अन्य छात्रा आंचल सिंह (उम्र 15) मानती है कि गृह विज्ञान और कृषि विज्ञान को लिंग के आधार पर बांटा गया है। आंचल बताती है कि "यदि ऐसा नहीं है तो गृह विज्ञान के क्लास में केवल लड़कियां ही क्यों होती हैं? इसी बात को आगे बढाते हुए एक छात्रा प्रतिमा कहती है कि "यह हमारे समाज की परंपराओं की वजह से है। इसीलिए महिलाओ की निर्णय लेने की क्षमता को घर की चारदीवारी में कैद कर दिया है। प्रतिमा का तर्क है कि "आखिर शादी ब्याह और ब्राहमण भोज खाना बनाने वाला हलवाई तो पुरुष होता है, फिर विषयों को पढ़ाते समय इसे लड़कियों तक ही सीमित क्यों कर दिया जाता है? हमें समाज की इस मानसिकता को समझना चाहिए।" वाकई! यह प्रश्न उचित है, जिसका जवाब समाज को आगे बढ़ कर देने की ज़रूरत है। 

बहरहाल ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक और वैचारिक रूप से आ रहे इस बदलाव को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखने की ज़रूरत है। समय और संचार की क्रांति ने शहरों के साथ साथ ग्रामीण समाज में भी एक बड़े बदलाव को जन्म दिया है। अब फूस के छप्पर के बीच कुछ पक्के मकान जिस प्रकार तेज़ी से अपनी जगह बना रहे हैं, ठीक उसी प्रकार गांव की महिलाएं भी साड़ी और सर पर पल्लू के साथ समाज में अपनी भूमिका थोड़ा थोड़ा ही सही, बनाती जा रही हैं। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2020 के अंतर्गत लिखा गया है)

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