हरीश शिवनानी
पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय सहकारिता दिवस पर केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने जो घोषणा की है वो शहरों और महानगरों में रहने वाले लोगों लिए शायद कोई महत्व नहीं रखती हो, पर ग्रामीणों के लिए एक अहम बात है। शाह ने अगले पांच वर्षों में देश के प्रत्येक गांव में सहकारी संस्था स्थापित करने की बात कही है। इसके साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय सहकारी नीति बनाने की भी घोषणा की। पहली नज़र में यह आम तौर पर प्रायः नेताओं-मंत्रियों द्वारा मंचीय घोषणा की तरह लग सकती है, पर ऐसा नहीं है।
यह घोषणा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि सहकारिता विभाग मोदी सरकार का महत्वाकांक्षी मंत्रालय है और इसके मंत्री शाह आम तौर पर ऐसी औपचारिक घोषणाएं नहीं करते हैं। वे जानते हैं कि देश की अधिसंख्य जनसंख्या गाँवों में बसती है और गाँव में रहने वाला व्यक्ति ही जानता है कि गाँव और ग्रामीणों के लिए कोई सहकारी संस्था क्या मायने रखती है।
भारत में पहली सहकारी संस्था मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर और और पक्षी- विज्ञानी कर्नल फ्रेडरिक निकोलसन बेट्स की रिपोर्ट के तहत तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले के तिरूर में अधिनारायण अय्या द्वारा 30 अगस्त 1904 को स्थापित की गई, जो एशिया की पहली सहकारी संस्था मानी जाती है। तब से भारत के विभिन्न राज्यों में सहकारी संस्थाओं ने कृषि, डेयरी, आवास और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। गुजरात की अमूल विश्व में दूध और दुग्ध उत्पादों का सबसे बड़ा सहकारी उत्पादक है। इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड (इफको) उर्वरकों के उत्पादन और विपणन में विश्व में खासा स्थान रखती है।
इसी तरह कृभको यानी कृषक भारती सहकारी लिमिटेड किसानों को उर्वरक, बीज और अन्य कृषि इनपुट उपलब्ध करवाती है। कर्नाटक मिल्क फेडरेशन, हॉपकॉम्स (हॉर्टिकल्चरल प्रोड्यूसर्स कोऑपरेटिव मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग सोसाइटी) किसानों के उत्पादों को सीधे बाजार में बेचने के लिए कार्यरत है तो श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ उत्पादन के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाती है। आन्योन्य कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड भारत का पहला सहकारी बैंक है। राजस्थान स्टेट कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड है, यानी ‘एपेक्स बैंक’ राजस्थान में सहकारी बैंकिंग क्षेत्र की शीर्ष संस्था है। दुग्ध और कृषि उत्पादों की उरमूल और सरस जैसी संस्थाएं भी उल्लेखनीय हैं। इन सबका प्राथमिक संबंध गाँवों और ग्रामीणों से है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार देश में 2023 तक भारत में कुल 6,49,481 गांव है। यह संख्या अंतिम नहीं है क्योंकि कई राज्यों में नए गांवों का गठन या विलय होता रहता है। मोटे तौर पर कहा जाए कि भारत में करीब सात लाख गाँव हैं और शाह की मानें तो 2030 तक इनमें से हर गाँव में सहकारी संस्था बन जाएगी। सवाल यह है कि भारत के आधारभूत ढांचे और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य बातों को देखते हुए क्या यह व्यावहारिक रूप से संभव है? दरअसल इस शाही लक्ष्य की प्राप्ति में इतनी चुनौतियां,समस्याएं और बाधाएं हैं कि शाह के लिए यह राह आसान नहीं है। मुख्य चुनौतियों को कुछ बिंदुओं में समझा जा सकता है:
बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी की कमी: ग्रामीण क्षेत्रों में खराब कनेक्टिविटी, बिजली और इंटरनेट की कमी के कारण डिजिटल उपकरणों और आधुनिक तकनीकों को अपनाना चुनौतीपूर्ण है। सहकारी समितियों को बाजार तक पहुंचने और सप्लाई चैन सिस्टम में तकनीकी पिछड़ापन बाधा बन जाता है।
वित्तीय संसाधन का टोटा : सहकारी संस्थाओं को स्थापित करने और संचालित करने के लिए पर्याप्त पूंजी की आवश्यकता होती है। सरकारी फंडिंग पर अत्यधिक निर्भरता और निजी निवेश की कमी इस लक्ष्य को पूरा करने में एक बड़ी चुनौती है।
प्राइवेट सेक्टर से प्रतिस्पर्धा: सहकारी समितियां अक्सर बड़े व्यवसायों और निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ रहती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार तक सीमित पहुँच और बुनियादी ढांचे की कमी, जैसे गोदामों और परिवहन सुविधाओं का अभाव, उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने में बाधा डालता है।
सभी वर्गों की भागीदारी की दिक्कत : ग्रामीण समुदायों में जातिगत और सामाजिक विभाजन समावेशिता को सीमित करते हैं, जिससे सहकारी समितियों में सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करना मुश्किल होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण लोग सहकारी समितियों की कार्यप्रणाली को पूरी तरह समझ नहीं पाते।
सीमित दायरा और एकल उद्देश्य: कई सहकारी समितियां केवल एक या दो गांवों तक सीमित हैं और एकल उद्देश्य (जैसे केवल ऋण प्रदान करना) पर काम करती हैं, जिसके कारण उनकी संसाधन क्षमता और प्रभाव सीमित रहता है।
केंद्र और राज्य की नीतियों का संघर्ष: सहकारी समितियां राज्य सूची का विषय हैं, जिसके कारण केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी एक बड़ी बाधा है।
जागरूकता और जवाबदेही की कमी: ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों के प्रति लोगोंऔर पदाधिकारियों में जागरूकता की कमी है, जिसके कारण सदस्यता और सक्रिय भागीदारी कम रहती है। सदस्य व्यक्तिगत लाभ के लिए समितियों में शामिल होते हैं, जो सहकारिता के मूल सिद्धांतों को कमजोर करता है।
राजनीतिकरण मुख्य बाधा: सहकारी संस्थाओं से जुड़े पदाधिकारी प्रायः किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े ही होते हैं। अक्सर राजनेताओं द्वारा समुदाय के कल्याण की कीमत पर अपने राजनीतिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए सहकारी समितियों का दुरुपयोग भी किया जाता है। अनेक सहकारी समितियों में पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया का अभाव है। अपर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारी और पेशेवर प्रबंधन की कमी के कारण संचालन में अक्षमता आती है। राजनीतिक हस्तक्षेप और नौकरशाही नियंत्रण सहकारी समितियों की स्वायत्तता को कमजोर करते हैं।
इन चुनौतियों को देखते कहा जा सकता है कि यह लक्ष्य एक हिमालयन टास्क है। इसके सियासी ख़तरे भी बहुत हैं। इससे मोदी - शाह की साख के साथ भाजपा का भविष्य भी जुड़ा है। सरकार अगर हर ग्राम में सहकारी समिति बनाने को प्रतिबद्ध है तो उसे इन चुनौतियों से निपटने के लिए समुचित उपायों पर गंभीरता से ध्यान देना होगा। इसके लिए इन बिंदुओं पर गौर किया जा सकता है-
वित्तीय समावेशन और पूंजी तक पहुंच:
सहकारी समितियों को राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) और अन्य वित्तीय संस्थानों के साथ जोड़कर ऋण और पूंजी तक पहुंच बढ़ाने के साथ सहकारी विकास कोष की स्थापना कर लचीली नीतियां लागू की जा सकती हैं।
पेशेवर प्रबंधन और प्रशिक्षण: सहकारी नेताओं और कर्मचारियों के लिए प्रबंधन और तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए जाएं।डिजिटल साक्षरता और प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया जाए।
तकनीकी आधुनिकीकरण: प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पैक्स) के डिजिटलीकरण के लिए चल रहे प्रोजेक्ट को गति दी जाए ताकि ई-कॉमर्स और डिजिटल मार्केटिंग प्लेटफॉर्म के माध्यम से सहकारी समितियों को बड़े बाजारों से जोड़ा जाए।
नीतिगत और कानूनी सुधार: सहकारी समितियों की स्वायत्तता बढ़ाने के लिए सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप को कम किया जाए। यह बेहद ज़रूरी उपाय है।
जागरूकता और समावेशिता: ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागरूकता अभियान चलाए जाएं, ताकि लोग सहकारी समितियों के लाभों को समझ सकें। विभिन समुदायों को शामिल करने के लिए विशेष योजनाएं शुरू की जाएं।
बुनियादी ढांचे का विकास: ग्रामीण क्षेत्रों में गोदाम, परिवहन और प्रसंस्करण इकाइयों जैसे बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए सरकारी योजनाओं का एकीकरण किया जाए। पैक्स को बहुउद्देशीय बनाकर उन्हें दुग्ध, मत्स्य पालन और अनाज भंडारण जैसे क्षेत्रों में विस्तारित किया जाए।
इसके बाद ही देश के हर गांव में सहकारी संस्था स्थापित करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है और तभी सहकारी समितियां वास्तव में ‘सहकार से समृद्धि’ का स्वप्न साकार हो सकता है।
(वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)
Mob 9829210036
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